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परिच्छेद.] शंखधमक, वानर और सिद्धि बुद्धि. १३३ किसी महात्माके गुणों को देखकर ईर्षा करते हैं, उनके पास जो कुछ समृद्धि अथवा जो कुछ उनमें गुण हैं, वे लोग उनसे भी हाथ धोकर बैठ जाते हैं । संसारमें मनुष्योंको संपदायें और सद्गुण ये पुन्यके प्रभावसे प्राप्त होते हैं । जिस मनुष्यको इन वस्तुओंकी इच्छा हो उसको चाहिये कि वह पुण्योपार्जन करनेकी चेष्टायें करे, जिससे उसे भी वे वस्तु प्राप्त होवें, ईर्षा और द्वेष करनेसे अपना आत्मा महा मलीन होता है और प्राप्ति कुछ भी नहीं।) 'सिद्धि' बुद्धिकी संपदाका भेदभाव निकालनेके लिए उसके घरपे गई और बड़े मीष्ट वचनोंसे 'बुद्धि' से बोली-बहिन ! आज तक मेरा और तेरा बड़ाही गाढ संबंध है और सखिपनेसे मैं तेरी बड़ी विश्वासपात्र हूँ, इसलिए मुझे तेरेसे और तुझे मेरेसे कोई अकथनीय बात अथवा गाप्य वस्तु नहीं, इसी कारणसे आजतक परस्पर प्रीति रही है और आगेको रहेगी, इस लिए तू मुझे यह तो बता कि अकस्मात इतना धन तेरे घरमें कहांसे आया? तुझे कोई चिन्तामणी रत्न प्राप्त हुआ है ? या तेरे ऊपर राजाकी कृपा दृष्टी हुई है ? या कोई देवता प्रसन्न हुआ है ? या कहींसे दवा हुआ खजाना प्राप्त होगया? या किसी महात्माने तुझे रसायण सिद्धि बताई है ? क्योंकि थोड़ेही दिन पहले जो कुछ मेरी हालत है वह तेरी भी थी । एकदम वैभव प्राप्त होनेका कारण कुछ न कुछ तो अवश्यही होना चाहिये और मुझे तो इस बनावको देखके अत्यन्त खुशी हुई है क्योंकि जब तुझे वैभवकी प्राप्ति हुई तो मेरा तो दारिद्र गयाही समझो । इस प्रकार पूछनेपर 'बुद्धि' ने 'सिद्धि के मनका भाव न समझकर उसे 'यक्ष' की आराधनासे लेकर धनकी माप्तितक सबही वृत्तान्त कह सुनाया । 'सिद्धि' ने 'बुद्धि' के वैभवकी माप्तिका कारण सुनकर विचारा .