Book Title: Parishisht Parv Yane Aetihasik Pustak
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Aatmtilak Granth Society

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Page 174
________________ १६० परिशिष्ट पर्व. [चौदहवाँ. स्थान अनुचित नहीं योग्यही है, भला चन्द्रमा किसके नेत्रोंको आनन्द नहीं देता ?। यह सुनकर रानी 'ललिता' बोली-भद्रे ! तूने भलि प्रकार से मेरे मनोगतभावको जानलिया, भला तेरेसी चतुरा क्यों नहीं जाने ? मैं तुझे बड़ी विश्वासपात्र समझती हूँ, अत एव मेरा कार्य भी तुझसेही होगा । जा तू इसके पास जाकर इसकी खोज तो निकाल यह कौन है ? और कहां रहता है ?। रानी 'ललिता' की आज्ञा पाकर दासी शीघ्रही महलसे उतरके बाजारमें गई और उस पुरुषका नाम ठाम पूछकर पीछे लौट आई । दासी, रानी 'ललिता' से बोली-स्वामिनि ! यह तो इसी नगरमें रहनेवाले समुद्रप्रिय साहुकारका पुत्र है और ललिताङ्ग इसका नाम है, पुरुषकी बहत्तर कलाओंमें बड़ा प्रवीण है और रूपमें भी कामदेवके समान है । इस लिए स्वामिनि ! आपका मन योग्य स्थानपरही है। लोकमें भी कहा जाता है कि-यत्रा कृतिस्तत्र गुणा वसन्ति । पुरुषोंमें यह एक असाधारण पुरुष है और स्त्रियों में एक आप रंभाके समान हैं । विधाताने जोड़ी तो योग्यही बनाई है। अब आप मुझे आज्ञा फ़रमायें जिससे मैं आपका उस युवान पुरुषके साथ संमिलन कराके मैं अपने आपको कृतार्थ करूँ। रानी 'ललिता' ने एक पत्रपे एक श्लोक लिखकर दासीके हाथमें दिया और कहा कि जा इस पत्रको 'ललिताङ्ग' को देकर मेरे मनोरथको पूर्ण कर । पत्रको लेकर दासी महलसे चल पड़ी। बहुतही शीघ्र जाकर वह पत्र 'ललिताङ्ग' के हातमें देकर दासीने मीठे बचनोंसे रानी 'ललिता' का मनोभाव उसे कह मुनाया। दासीकी बात सुनकर नव युवान 'ललिताङ्ग' मारे हर्षके अङ्गमें न समाया और प्रेमसे उस लेखको वाँचने लगा।

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