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. परिच्छेद.] . नागश्री-ललितांग, 'ललिता' ने पत्रमें यह श्लोक लिखा था ।
यथा दृष्टोऽसि सुभग तदाद्यपि वराक्यहम् । पश्यामि खन्मयं सर्व योगेनानु गृहाणमाम् ॥
श्लोक वाँचकर मनही मन हर्षित होकर 'ललिताङ्ग' दासीसे मुस्कराकर बोला-भद्रे ! भला यह बात किसतरह बन सकती है ? कहां तो वह अमूर्यपश्या अन्तेउरमें रहनेवाली तेरी स्वामिनी और कहां मैं वणिकपुत्र ? । यह बात सर्वथा अशक्य है क्योंकि जब अन्तेउरमें रहनेवाली राजपत्नियोंको असाधारण पुरुष भी नहीं देख सकते तो फिर साधारण परपुरुषके साथ क्रीड़ा करना यह तो बिलकुलही अशक्य है । जो आदमी जमीन पर रहकर चन्द्रमाकी किरणोंको पकड़ सके वह आदमी राजपनियोंके साथ संभोग कर सकता है । दासी बोली-महाशय ! बेशक आपका कहना सच है, यह कार्य अशक्य है परन्तु जिनको किसी प्रकारकी सहायता नहीं उनकेही लिए अशक्य है । आप किसीतरहकी अधीरज मत करो, आपको मैं सहायता देनेवाली बैठी हूँ। मेरी बुद्धिसे आप अन्तेउरमें रहकर राजपनिके साथ विषयसुख भली भाँति भोग सकोगे। मैं आपको फूलोंके करंडियमें छिपाकर ऐसी तरकीवसे अन्तेउरमें लेजाऊँगी कि किसीको शंका तक भी न होने पायगी। 'ललिताङ्ग' बोला-अच्छा जब अवसर हो तब मुझे बुलाना । यह सुनकर दासी खुश होती हुई राजमहलको चली गई और महलमें जाकर रानीसे 'ललिताङ्ग'' का वृत्तान्त कह सुनाया । अब रानी 'ललिता' का मन रातदिन ललिताङ्गमेंही रहता है। एक दिन नगरमें कौमुदी महोत्सव था, सारा नगर उस दिन कौमुदी महोत्सवमें मन था । राजा भी उस दिन कौमुदी महोत्सव देखनेको नगरसे बाहर तालावपे 21