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'परिच्छेद.]
तीन मित्र. इन बातोंकी तो खबरही किसे थी । संसारमें सदा किसीकी न रही और न रहेगी, दैवयोग एक दिन ‘सोमदत्त' पुरोहितसे कोई ऐसा गुनाह होगया, जिससे राजाके मनमें अत्यन्त क्रोध आगया और 'सोमदत्त' को शिक्षा देनेकी तदबीर होने लगी। _ 'सोमदत्त' ने यह बात जान पाई, अत एव वह अपने प्राणोंका रक्षण करनेके लिए रात्रिके समय सहमित्रके मकानपर गया और जाकर कहने लगा। मित्र! आज मुझपर बड़ा भारी संकट आपड़ा है, राजा मेरे ऊपर क्रोधित होगया है, न जाने मुझे प्राणापहारकी शिक्षा दे, इस लिए मैं तेरे घरपे कुछ दिन गुप्त रहकर इस दुःखमय समयको निकालना चाहता हूँ। मित्रका कर्तव्य भी यही होता है कि आपत्तिकालमें यथा तथा अपने मित्रकी सहायता करे, इस लिए हे मित्र! तू मुझे अपने घरपे गुप्त रखकर अपनी मित्रताको सफल कर । कनके समान हृदयवाला सहमित्र बोला-भाई ! हमारी तुमारी मैत्री तब तकही है जब तक राजभय नहीं, राजभय होनेपर अब हमारी तुमारी मैत्री नहीं रह सकती। भला राज दुषित पुरुषको कोम अपने मकानपे रखकर मरना चाहता है ? । मैं तेरे अकेलेके लिए सहकुटुंब अपने आपको अ नर्थमें किस तरह गेर सकता हूँ? । इस लिए मुझे भी राजपुरुपोंका डर है तू शीघ्रही मेरे मकानसे निकल जा, जहाँ तेरी राजी हो वहाँ जा मगर यहां न खड़ा होना । इस प्रकार अपमानित होकर हृदयमें दुश्व मनाता हुआ ' सोमदत्त' सहमित्रके घरसे निकल गया और पर्वमित्रके बरपे जाकर उसे अपना सर्व वृत्तान्त कह सुनाया । ‘सोमदत्त को आते देखकर पर्वमित्रमे बड़े सन्मानसे आमंत्रण किया और उसका दुखमय चान्त सु