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परिच्छेद . ] जातिमान अश्व और मूर्ख लड़का
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भी वह सुशील घोड़ा अपने मार्ग से विचलित न हुआ । जब इस प्रकार करते हुए रात व्यतीत होने लगी तब उस अश्वको अन्यत्र लेजानेके लिए असमर्थ होकर वहांही छोड़के वह दुरात्मा भाग गया । प्रातःकाल होनेपर संबंधियोंके महोत्सवमेंसे 'जिनदास' अपने घरको आरहा था, रास्तेमें उसने एक आदमी से सुना कि आज सारी रातभर तुमारा घोड़ा कौमुदी महोत्सव में फिराया गया है । 'जिनदास' इतनाही सुनकर चौंक पड़ा, संभ्रांत हो शीघ्र ही अपने मकानपे आया और उस घोड़े की दुर्दशा देख तथा उस धूर्त श्रावकको न देखके मनमें बड़ा दुःखित हुआ और समझ गया कि उस धूर्तकाही यह दुस्कर्म है, उसने मुझे धर्म के बहाने से ठग लिया, खैर मेरे दिन अच्छे थे जो घोड़ा बच गया, यह कह कर घोड़ेको प्रेमपूर्वक पुचकारा और उस दिनसे लेकर किसीका भी विश्वास न करके अपने प्राणोंसे भी अधिक उस अश्वकी रक्षा करने लगा । इस लिए हे भद्रे ! उस अश्वके समान मुझे भी कोई उन्मार्गमें लेजानेके लिए समर्थ नहीं है । परलोकमें सुख देनेवाले मार्गको मैं कभी न त्यागूँगा ।
'कनकश्री' बोली-स्वामिन्! ग्रामकूटके मूर्ख लड़के के समान आप जड़बुद्धिवाले मत बनो, तथाहि किसी एक गाँवमें ग्रामकूट नामा एक कृषक रहता था, उसके एक लड़का था, कुछ दिनों के बाद उस लड़के का पिता मरजानेपर वह बिलकुल स्वेच्छाचारी और हरामी होगया । उसकी माता बिचारी दुखी होकर दूसरों के पसिने पीसकर भी उसका पेट भरती, मगर वह ऐसा निखट्ट था कभी भी एक पाई कमाकर नहीं लाता, जब उसका पेट भरजाता है तब अलमस्त होकर इधर उधर फिरता रहता है और जब रसोईका टाइम होता है तब फिरके घरपे आजाता है । एक दिन