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परिच्छेद.] ब्राह्मणपुत्र और एक शकुनि. १४७ उस नगरमें अव्वल नंबरकी वेश्या गिनि जाती थी, इस लिए उसके घरपे राजकीय लोग तथा बड़े बड़े धनाढ्य पुरुषही आया करते थे, साधारण आदमीको तो वहांपर घुसना भी न मिलता था । 'कामपताका' की पुत्री क्रमसे योबनको प्राप्त हुई उसकी चढती जवानी तथा रुपलावण्यको देखकर राजाके लड़के तथा अन्य भी शेठ साहूकारोंके युवावस्थावाले लड़के उसपर आशिक होगये और रात्रिके समय मेवा मिष्टान लेकर उसके घरपे जाने लगे । इधर वह 'सोल्लक' का जीव योवनको प्राप्त हुआ हुआ भिक्षावृत्तिसे अपना निर्वाह करता है । एक दिन उसने कहीं बाजारमें घूमती हुई उस वैश्या पुत्रीको देख लिया, उसे देखके उस ब्राह्मण पुत्रका मन उसके कबजेमें न रहा और ऐसा अत्यन्त आसक्त होगया कि रातदिन कुत्तेके समान उस वैश्याके घरके दरवाजेपर पड़ा रहता है । वेश्यापुत्री राजा अमात्यादि धनवानोंके पुत्रोंके साथ क्रीड़ा करती है, उस ब्राह्मणपुत्रकी ओर नजर भरके देखती भी नहीं, बल्कि उस ब्राह्मणपुत्रकी कटु वचनोंसे कदर्थना करती है । इस प्रकार कदर्थना करनेपर भी वह ब्राह्मणपुत्र उस वेश्या पुत्रीको देख देखकर जीता है । वेश्या उसे बहुतही तिरस्कारकी दृष्टीसे देखती है, तथापि वह मूढ उसके घरको स्वगांगार सा समझकर वहांही पड़ा रहता है, उसके घरको छोड़नेमें असमर्थ होकर ब्राह्मणपुत्र उस वेश्याके पीकदान वगैरह साफ करने लगा और भी जो कुछ काम देखता है उसे विना कहे सुनेही कर लेता है । वेश्या उसे ताड़ना तर्जना करके अपने मकानसे निकालती है परन्तु वह मूढ दुसा तिरस्कारको भी सहन करता हुआ और भूख प्यासकी वेदनाकोभी न गिनकर वहांही पड़ा रहता है। वेश्यापुत्रीने कई दफे तो अपने नोकरोंसे भी बुरा भला क