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१३२ परिशिष्ट पर्व.
दशवा मिलनेपर अब 'बुद्धि' के घर सदैव हलवा, पूरी उड़ने लगा और जिन वस्त्रोंको बुद्धिने कभी स्वममें भी न देखा था वे वस्त्र पहने जाते हैं, यह हालत देखके पासमें रहनेवाले पड़ौसी भी विस्मित होकर विचारने लगे क्या कोई इस बुढियाको कहींसे खजाना मिल गया है ? या कहींसे इसे कुछ धन पाया है ? । इस प्रकार घनेही संकल्प विकल्प किये परन्तु किसीको कुछ भी पता न लगा।
'बुद्धि' अब पहलेसी नहीं है अब तो उसके घरमें दश वीस दास-दासिये भी कामकाज करनेवाले रहते हैं । 'बुद्धि' जिस टूटे हुए झोपड़ेमें प्रथम रहती थी उस झोपड़ेको छोड़कर उसने बड़ा विशाल और मनोहर एक महल चिनवाया, उस महलमेंही 'बुद्धि'का रहना सहना होता है। अब 'बुद्धि' की सेवामें के तो दासदासी उपस्थित रहते हैं और उसकी पोसाक भी प्रतिदिन नयीही बदली जाती है । यही नहीं था कि 'बुद्धि' उस यक्षराजके दिये हुए वित्तसे अपनाही पेट भरती थी बल्कि आये गये अतिथियोंका भी सत्कार भली प्रकारसे करती थी और अर्थी जनोंको उचित दान भी देती थी । 'बुद्धि' की इस ऐश्वर्यताको देखके उसकी सखी 'सिद्धि के मनमें बड़ी ईर्षा पैदा होती थी। मगर उसकी कुछ पार न बसाती थी । 'सिद्धि' के मनमें ईर्षा पैदा होनेका कारण यही था कि उसके दिलमें यह विचार आता था हम दोनों एक सरीखीही थीं, थोड़ेही दीनोंमें उसके यहां अतुल खजाना कहांसे आया और मेरी तो वहीकी वही दशा है। यदि रोटी प्राप्त होती है तो शाक नहीं और शाक है तो रोटी नहीं । यह विचार करके हमेशा अपने हृदयमें झुरती रहती थी। (सज्जनो! इसी ईर्षासे आज अपने पवित्र भारतकी यह दशा होरही है मगर जो मनुष्य जिस किसीकी समृद्धि अथवा जिस