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परिशिष्ट पर्व.
[आठवाँ
विचार यह था कि दुराचारिनी रानी तथा हाथीवानको उसी हाथीपर चढ़ाकर पर्वतसे गिराया जाय इससे इन तीनों कोही सजा मिल जायगी । राजाका चेहरा तपा हुआ देखके हाथीवानके दिलमें खटक गई कि आज कुछ न कुछ कालेमें धौला है । खैर राजाज्ञा बलीयसी उसी रानीको राजवल्लभ हाथीपर बैठाकर वैभारगिरि पर्वत पर जानाही पड़ा । इस बातकी चरचा तमाम नगरमें फैल गयी । अत एव नगरवासी हजारोंही जन वहांपर आगये । वैभारगिरिका जो बड़ाही विषम प्रदेश था जहांपर अन्य पशुको भी चढ़ना बड़ा मुस्किल होता था, उस पर्वतपर राजाने हाथीवानको हाथी चढ़ानेकी आज्ञा दी । 'हाथीवान' ने राजाकी आज्ञा से बड़ी खूबीसे राजवल्लभ हाथीको उस विषम प्रदेशपर चढ़ा लिया | जब हाथीवान पर्वत के शिखरपर हाथीको ले गया तब राजाने आज्ञा दी कि हाथीको यहांसे नीचे गिराओ । यह सुनकर नगरवासियों का भी कलेजा धड़कने लगा और हाथी एक पाँवको अधर उठाके ३ तीन पाँवके आधारसे खड़ा होगया, यह देखकर नगरवासि जनोंका हृदय करुणारस से पसीज गया । अत एव वे हाथ जोड़कर बोले- हे राजरत्न ! स्वामीकी आज्ञाको पालन करनेवाले इस बिचारे पशुका मारना योग्य नहीं, राजाने इस बातको न सुनकर फिर आज्ञा दी कि हाथीको नीचे गिराओ । हाथीने अपने दोनों पाँव अधर उठा लिये और दो पाँवसे खड़ा होगया, नगरवासि जनोंने फिर पूर्ववत प्रार्थना की परन्तु क्रोधर्मे आये हुए मनुष्यको हितकारी बात भी जहरके समान मालूम होती है । राजाने तीसरी दफ़े भी नगरवासियोंका कुछ न सुना और क्रोधमें आकर बोला- अरे दुष्टो ! अभीतक मुझे अपना मुँह दिखा रहे हो । शीघ्रही पर्वतसे गिरके अपने आत्माको माश्चित्तका