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परिशिष्ट पर्व.
[आठवाँ
देदिया । सज्जनो ! संसारमें ऐसी कोई बात नहीं और ऐसा कोई कार्य नहीं कि जिसे मनुष्य न जान सके मगर स्वीचरित्रसागर में हरि हरादि देवताओं ने भी गोते खाये परन्तु इसके पारको न पा सके । भला जिनको दुनियां सृष्टीके कर्त्ता मानती है जब उनको भी अपनी इच्छानुसार इसने नाच नचाये हैं तो फिर सामान्य बुद्धिवाले मनुष्य मात्र इसके तीक्षण बाणोंसे अपने प्राणोंका धात करें तो इसमें क्या नवाई ! जो मनुष्य इन स्त्रियोंके फंदे से बच गया उसको समझलो कि वह संसारके सर्व दुःखों से बच गया । राजाने निरापराधी विचारे हाथीवानको चोर समझके मूलीपर चढ़ा दिया | हाथीवानको जब सूलीपर चढ़ाया गया तब उसे बड़ी कड़ी प्यास लग रहीथी, इसलिए वह सूलीपर भी पानी पानी पुकारता था, परन्तु राजाके भय से उसे किसी ने भी पानी न पिलाया । इतनेमेंही उस मार्ग से 'जिनदास' नामका एक श्रावक आ निकला, उसको देखकर भी उसने पानीकी पुकार की 'जिनदास' बड़ा दयाधर्मी था अत एव उस दुखीको देखके जिनदासके हृदयमें करुणा नदी बहने लगी 'जिनदास' ने विचारा कि इस बिचारे पामरको दुर्गति जाते हुए को किसी तरह भी बचाऊँ । यह समझ 'जिनदास ' बोला- भाई ! तू घभरा मत मैं तेरे लिए अभी पानी लाता हूँ, परन्तु जबतक मैं पानी लेकर आऊँ तबतक तू इस महा मंत्र का जाप कर । जाप यह था ( नमोऽद्भ्यः ) चोर बड़े उच्च खरसे इस महामंत्र का जाप करने लगा । 'जिनदास' राज पुरु
को समझाके उनकी अनुमति से पानी लाया, मगर जब 'जिनदास ' उसके पास पानी लेकर आया तब उस महामंत्र का जाप करते हुए उसके प्राण निकल गये ।
हाथीवान बड़ा दुःशील और पापी जीव था इस लिए वह दुगर्तिकाही अतिथि होनेवाला था परन्तु पूर्वोक्त महामंत्र के प्रभावसे