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परिशिष्ट पर्व. [आठवा. उपकार किया है तो भी तू मुझे निराधारिणीको छोड़के कहां जाता है ? । चोर बोला-राक्षसीके समान तुझे देखके मेरे हृदयको कंपारी आती है, बस देवि अब मैं तुझे नमस्कार करता हूँ। यह कहकर चोर अपने घरको चला गया, वह ननिका राजपनी वहांही उस सरकड़ेके झाड़ नीचे खड़ी रही । इधर वह हाथीवानका जीव जो दोषारोपणसे मंरके महामंत्रके प्रभावसे व्यन्तर जातिका देव हुआ था । उसने अपने अवधि ज्ञानमें उपयोग देकर उस 'पुंश्चली' को पूर्वोक्त अवस्थामें देखा, अत एव उसे बोध करनेके लिए वह 'व्यन्तरदेव' गीदड़का रूप धारण कर और मुंहमें एक मांसका टुकड़ा लेकर वहां आया जहांपर वह पुंश्चली नग्निका खड़ी थी । उस वक्त जलमेंसे निकल कर एक मछली नदीके किनारेपर आगई, गीदड़ उस मछलीको देखकर अपने मुंहसे मांसके टुकड़ेको छोड़के मछलीकी ओर भागा, मगर गीदड़को देखकर वह मछली झट पानीमें बड़ गई और उधर उस मांसके टुकड़ेको भी आकाशसे आकर 'चील' उठा गई । यह हालत होनेपर गीदड़ चारों ओर टुमर टुमर देखने लगा । यह सब कार्रवाई वह 'पुंश्रली' सरवनकी ओटमें खड़ी हुई देख रही थी। वह उस वक्त बड़ी दीन और दुखी थी तथापि यह कौतुक देखकर उससे न रहा गया, अत एव वह यों बोल उठी
मांस पेशी परित्यज्य मीनमिच्छसि दुर्मते । - भ्रष्टो मीनाच्च मांसाच किं जम्बुक निरीक्षसे ॥१॥
अर्थात् अपने मुंहमें आये हुए मांसके टुकड़ेको छोड़कर मछलीकी इच्छा करता है । अब मांसके टुकड़े और मछलीसे भ्रष्ट होकर हे दुर्मते ! गीदड़ क्या देखता है ? यह सुनकर