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परिशिष्ट पर्व.
[नवमाँ:
होकर अपने व्रतको खंडित कर देगा । परन्तु जिस मनुष्यके भाग्यमें काचका टुकड़ा लिखा है उसे कभी भी चिन्तामणी रत्नकी प्राप्ति नहीं हो सकती । 'विद्युन्माली' मुँह उदास करके 'मेघरथ' से बोला- भाई! आपकी विद्या सिद्ध होगई हैं, आप खुशी से वैताढ्य पर्वतको पधारो, मेरी अभीतक विद्या सिद्ध नहीं हुई क्योंकि ब्रह्मचर्यरूप वृक्षको मैंने प्रमादमें आकर उखेड़ डाला । फिर उससे प्राप्त होनेवाला विद्या सिद्धिरूप फल कहांसे होवे ? और इस हालत में वैताढ्य पर्वतपर जाकर बन्धु वर्गको मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? आप तो कृत कृत्य होगये हैं मैंने तो अपने आत्माको अपने आपही ठगा लिया । अब इस दशामें इस गर्भवती पत्नीको भी त्यागना अनुचित है । आपका कल्याण हो, आप वैताढ्य पर्वतको पधारो और अब मैं भी एक वर्षतक ब्रह्मचर्य का पालन करके विद्याकी साधना करूँगा, अब मैं बिलकुल जरा भी प्रमाद न करूँगा । 'मेघरथ' अपने छोटे भाईकी यह दशा देखकर बड़ा विस्मित हुआ और उसे उपदेश गर्भित वचन कहकर अकेलाही वैताढ्य पर्वतको चला गया । ' मेघरथ जब अपने घर जा पहुँचा तब उसे अकेला देखकर उसके स्वजनोंने उसको पूछा कि भाई तुम अकेले क्यों ? ' विद्युन्माली ' को कहां छोड़ा ? | इस प्रकार पूछनेपर 'मेघरथ' ने 'विद्युन्माली ' का वृत्तान्त स्वजनों को कह सुनाया । इधर 'मेघरथ' के चला जानेपर 'विद्युन्माली' की पत्नीके पुत्र पैदा हुआ । आजतक तो 'विद्युन्माली' उस कुरूपा चाण्डालीके प्रेमबंधन से बँधा हुआ था मगर अब पुत्रके भी प्रेमबंधनसे जकड़ा गया और पुत्रका मुँह देखकर अत्यन्त सुख मनाता है, विद्या सिद्ध करना तथा विद्याधर संबंधि सुखों का अनुभव और वैताढ्य पर्वतकी नन्दन
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