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परिशिष्ट पर्व. [आठवाँ जिसमेंसे इस बुढियाको निकाला है। खैर अब कार्यसिद्धि तो निःसंदेह होगी, पंचमीका दिन जल्दी आवे तो ठीक हो, कुछ धन देके 'जोगन' से बोला-माई ! जो हुआ सो हुआ किसीके सामने वात न करना, 'जोगन' खर्ची लेकर अपने रस्ते पड़ी । कृष्णपंचमीका दिन आनेपर बड़ी खुशी मनाता हुआ वह 'युक्क' रात पड़नेपर अँधेरेमें उसकी अशोकवाड़ीकी ओर चला। इस वक्त 'दुर्गिला' उस वाड़ीमें रात पड़तेही आ बैठी और दरवाजेकी
ओर टकटकी लगाकर उस पुरुषकी प्रतिक्षा कर रही है। इतने मेंही वह पुरुष भी सामनेसे चोरके समान चला आ रहा है । उस पुरुषको देखके 'दुर्गिला' रोमांच होगई और ऐसी खिल उठी जैसे, सारी रातकी मुरझायी हुई 'कमलिनी' प्रातःकालमें सूर्यके देशनसे खिल जाती है । उस 'युवक' ने भी अपनी दोनों भुजा उठाकर उस अपनी प्राणप्यारीको सर्वांगसे आलिङ्गन किया, आजतक ये स्त्री-पुरुष एक चित्तवाले थे परन्तु शरीरसे भिन्न थे, आज इनका शरीर भी एक होगया है। इस प्रकार उन्होंने निरभय होकर स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा की और अपने वियोग संबंधि दुःख सुखकी बातें करते हुवे रात्रिके दो पहर व्यतीत कर दिये। अब वह पूर्वसा अँधकार नहीं रहा, चंद्रमा अपनी समस्त किरणोंको लेकर गगनमें आचढ़ा और तारे भी अपनी नयी २ युतिसे उसको सहायता देरहे हैं और पवन भी सुखकारी मन्द मन्द चल रहा है, चंद्रमाकी शीतलता किसके चित्तको प्रमुदित नहीं करती ? और फिर कामीजनोंका तो कहनाही क्या? परन्तु वियोगके ससय यह चंद्रमाकी शान्तिदायक चाँदनी उनको अग्निके समान आचरण करती थी परन्तु बहुत दिनोंमें आज वह दुःखमय समय दूर होगया है और सुखमय समय प्राप्त हुआ है । आनन्दपूर्वक