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परिच्छेद.] नूपुर पंडिता. संदेह नहीं, यह कहकर 'जोगन' शीघ्रही 'दुर्गिला' के मकानपर गयी और वहां जाकर मीठे वचनोंसे बोली कि हे भद्रे ! अपनी समान वयवाले और कामदेवके समान रूपवाले उस युवा पुरुषको अङ्गीकार करके अपने योवनको सफल कर ।
'दुर्गिला' ने उस जोगनका यह कथन सुनकर और अपने भावको छिपाकर पूर्ववत तिरस्कारपूर्वक क्रुधितके समान होकर उस बुढ़िया 'जोगन' को गलेसे पकड़के अपने घरके पासकी अशोकंवाड़ी से निकाल दिया और क्रोधमें आकर बोलीजोगन ! याद रखना यदि फिर मेरे मकानपर आई तो तुझे जानसे मरवा डालूँगी । जोगन इस प्रकारके तिरस्कारको सहन करती हुई और मारे शर्मके अपने मुँहको नीचा किये हुवे वहांसे चुपचुपाती निकल गई और शीघ्रही उस दुःशील पुरुषके मकानपर जाकर झुंझलाकर बोली-आग लगो तुमारे अनुरागमें
और झेरेमें पड़ो तेरा धन, इतनी तो कमाई भी नहीं हुई जितनेका लँहगा फट गया, आजतक मेरा किसीने भी इतना तिरस्कार न किया था, जितना तुमारे निमित्तसे इस राँडने किया है। 'जोगन' को गुस्समें आई हुई देखकर वह 'युवक' बोला-माई माफ़ कर जो हुआ सो हुआ तू मुझे दश गालिये दे ले, परन्तु जो कुछ नौबत बीती है सो शान्तिपूर्वक सुना । 'जोगन' बोलीमुनाऊँ क्या उसने तो मुझे जातेही गरदनसे पकड़के अपने घरकी अशोकवाड़ीके बीचमेंसे निकाल दिया और बड़ेही कठोर वचनोंसे मेरा तिरस्कार किया । अब हरगिज़ भी मैं वहां न जाऊँगी। इस बातको सुनके उस नव युवकने विचारा कि यदि अशोकबाड़ी से निकाली है तो निश्चय उस धीमतीने स्थानका संकेत दिया है वह मुझे कृष्णपंचमीके दिन उसी अशोकवाडीमें मिलेगी