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'परिच्छेद.] अठारा नाते. कि जारपुरुष पे आता है। जारपुरुष वहांसे अपने प्राणोको लेकर भागा परन्तु मारके मारे उसका दम लबोंपर आ गया था इस लिए वह थोड़ीही दूरीपर जाकर जमीनपर पड़ गया, उठ. नेको असमर्थ हुआ हुआ जमीनपर तड़फता हुआ मनमें विचारता है कि धिक्कार है मुझे ऐसे निन्दित कर्मके करनेवालेको मुझे यह फल मीलनाही योग्य था यदि मैं इस राँडके कहनेमें आकर इस अति निन्दित कर्मको न करता तो मुझे कौन कहनेवाला था
और मेरी यह दशाही क्यों होती, अच्छा यह मेरे किये कर्मकाही मुझे फल मिला है। इस प्रकार विचार करता हुआ मृत्युको प्राप्त होकर अपनेही वीर्यमें 'गाङ्गिला' की कुक्षिमें पुत्रपने उत्पन्न हुआ। नव मासके बाद 'गाङ्गिला' ने पुत्रको जन्म दिया, पुत्रका मुख देखकर 'महेश्वरदत्त' उसे जारसे उत्पन्न हुवे पुत्रको अपनाही मानता हुआ बड़ा आनन्दित होता है और 'गाशिला' को जो पुंश्चलीका दोष लगा था उसे भी पुत्रके मोहमें भूल गया और पहलेसीही उसे सुशीला समझने लगा। अपनी पत्नीके जारके जीव पुत्रको खिलाता हुआ 'महेश्वरदत्त' बड़ा खुशी होता है और अपने सर्वस्वके समान पुत्रको हमेशा अपनी छातीसे लगाकर रखता है। ____एक दिन • महेश्वरदत्त' के पिताका श्राद्ध था, इस लिए 'महेश्वरदत्त' ने श्राद्धमें मांस पकानेकी इच्छासे एक महीष (भैंसा) मँगवाया, दैवयोगसे वही महीष मँगवाया गया जो 'महेश्वरदत्त' का पिता 'समुद्रदत्त' लोभके वश मरके महीष बना था, उस महीषको मारके श्राद्धमें उसका मांस पकाया गया और कुटुंबके सब जनोंने उसे सानन्द खाया । 'महेश्वरदत्त ने भी बड़ी खुशीसे भक्षण किया और गोदमें बैठाकर अपने पुत्रके मुखमें भी अपने हाथसे उस मांसके गिराश देने लगा, उस वक्त