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परिच्छेद . ]
अठारा नाते.
गती थी तब दोनों साथही फलफूल खाते थे और वृक्षादि आरोहण भी साथही किया करते थे । उस अटवीमें एक बड़ा भारी तालाव था, उस तालाव के किनारे एक बैंतका वृक्ष था, उस तीर्थका यह बड़ा भारी प्रभाव था कि जो उस बैतके वृक्षपर चढ़कर पशु उस तीर्थमें छाल मारे तो वह देवकुमार के समान रूपको धारण करनेवाला मनुष्य होजाता था और उस पशुसे बना हुआ मनुष्य फिरसे छाल मारे तो वह अपने असली रूप में आजाता था । दैवयोगसे एक दिन वह वानर-वानरी क्रीड़ा करते हुवे उसी तीर्थ की ओर जा निकले होनहार स्वाभाविकही वानरने उस बैतके वृक्षपर चढ़कर तालाब में झंपापात किया, तादृश तीर्थ के प्रभाव से वह वानर पड़तेही देवकुमारके समान रूपवाला मनुष्य बन गया ।
यह हालत देखकर वानरीने भी वैसेही झंपापात किया और वह भी देवाङ्गनाके समान रूपवाली स्त्री होगई, उस स्त्रीरत्नको प्राप्त करके उस नररत्नने उसे प्रेमपूर्वक आलिङ्गन किया और उस निर्जन वनमें रहकर सानन्द अपने समयको व्यतीत करने लगे, परन्तु जब किसीको कुछ लाभ होता है तब उसे लोभ भी अधिक बढ़ता है । एक दिन वे स्त्री-पुरुष आनन्दसे क्रीड़ा कर रहे थे । पुरुष बोला- हे प्रिये ! जिस प्रकार हम वानरसे मनुष्य वन गये हैं वैसेही फिर करनेसे देवता बनें, क्योंकि पशु और मनुष्य जन्मके तो सुखोंका अनुभव कर लिया अब देव संबंधि सुखोंका अनुभव करना चाहिये और देवता बनना अंब यह हमारे हाथ में ही है, क्योंकि जब एक दफा इस तीर्थ में पड़नसे पशु से मनुष्य होगये तो दुबारा पड़नेसे अवश्यही मनुष्यसे देवता होजावेंगे । यह सुनकर स्त्री बोली- स्वामिन् ! अति लोभ करना
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