________________
॥ चौथा परिच्छेद ॥k-g
अन्तिम केवली जंबूस्वामी.
इधर राजगृह नगरमें राजशिरोमणि 'श्रेणिक' राजा harsms सम्यक् प्रकारसे अपनी साम्राज्य लक्ष्मीको पाFor II लता है । राजगृह नगरमें राजसभाका भूषण
और धर्मकर्ममें श्रेष्ठ 'ऋषभदत्त' नामा श्रेष्ठी रहता है, वह ऐसा तो धर्ममें चुस्त है कि अठारह दोषसे रहित देवको देव मानता है पाँच महाव्रतधारी साधुको गुरु मानता है
और सर्वज्ञ पणित धर्मको धर्म मानता है । गुरुओंके पास जाकर हमेशा धर्मशास्त्र श्रवण करता था अत एव उसका. हृदयरूप जल ऐसा तो निर्मल था कि जिसमें मिथ्यात्वरूप मलका लेशभी न था, जैसे सरोवरका जल तथा मार्गके वृक्षोंके फल सर्व जनोंके उपभोगमें आते हैं वैसेही उस 'ऋषभदत्त श्रेष्ठीकी लक्ष्मीभी सर्वजनोंको उपकारकारिणी होतीथी । इसके समान है गति जिसकी और धर्मको धारण करने वाली 'धारिणी' नामकी उसकी धर्मपत्री थीं 'धारिणी' हमेशा सर्व गुणोंमें शिरोमणि शीलव्रतको अपने प्राणोंसेभी अधिक पालती थी क्योंकि सीतासी सतियोंनेभी बढ़े बड़े संकटोंमें इस दुष्कर शीलव्रतकीही रक्षा