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१८ परिशिष्ट पर्व.
ठा कर दीक्षा लेनी चाहते हो सो क्या कारण ? इन बेचारी नचोदा स्त्रियोंपर अनुकंपा करके विषयसुखका अनुभव करो संसारके सुखभोगकर पीछे दीक्षा लो तो क्या तुम्हें कोई रोक सकता है ? । इस प्रकारके सुखको छोड़कर तुम दीक्षा ग्रहण करनी चाहते हो यह कोई तुमारी बुद्धिमत्ता नहीं क्योंकि इस विषयजन्य सुखके लिए तो संसारमें प्राणी मात्र भटकते फिरते हैं और तुम्हे यह सुख पूर्वकृत सुकृतसे मिला है यदि अब भी इसपर उपेक्षा करदोगे तो फिर ऐसा सुख कहां प्राप्त करसकोगे? बड़े आश्वर्यकी बात है देखो इस संसारमें कैसी कैसी विचित्र घटनायें बनती हैं एक आदमी जिस वस्तुको असार समझ कर त्याग करना चाहता है उसी वस्तुको दूसरा आदमी सार समझकर ग्रहण करना इच्छता है । जंबूकुमार' बोला कि हे सखे ? विषय सुख संसारमें 'किंपाकफल' के समान है किंपाकफल, खानेमें मधुर और देखनेमें सुन्दर होता है परन्तु पेटमें जानेकीही देरी है कि आत्मासे प्राणोंको शीघ्रही जुदा कर देता है..
इस प्रकारके विषयजन्य सुखसे जीवको सुख तो सरसोंके दानेसे भी अल्प होता है और दुःख मेरुपर्वतके समान होता है । जैसे कि कोई पुरुष जंगलमें भटक रहाथा कुछ पुन्ययोगसे उसकी नज़र एक साथ जाता हुआ पड़ा अत एव वह आदमी उस सार्थके साथ साथही चल पड़ा, वह सार्थ चलता चलता एक बड़ी भयानक अटवीमें जा पहुँचा, दैवयोगसे उस सार्थका उस अटवीमें पहुंचना और उधरसे एक चोरोंकी धाड़का आना उस चोरोंकी धाड़को देखकर सार्थके लोग ऐसे भाग गये जैसे सिकारीको देख मृगोंका टोला छिन्नभिन्न होजाता है । पूर्वोक्त पुरुष जो अभी सार्थके साथ हुआ था वह विचारा अपने प्राणोंको