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परिच्छेद.] जंबूकुमारका अपनी स्त्रियोंके साथ विवाद. ७१ यह है कि उस आपत्ति प्रसित मनुष्यके समान संसारी जीव है । उस भयानक अटवीके समान यह संसार है, हाथीके समान मृत्यु है, अजगरके समान घोर नरक है, चार सपोंके समान भयंकर दुःखदेनेवाले क्रोध, मान, माया, लोभ, ये चार कषाय हैं, बड़के वृक्षके समान मनुष्यका आयु है और श्वेत, कृष्ण, दोनों मूषकोंके समान आयुरूप वृक्षको काटनेमें तत्पर शुक्ल और कृष्ण दो पक्ष हैं, मधकी मक्खियोंके समान मनुष्यके शरीरमें अनेक प्रकारकी व्याधियां हैं और मधबिन्दूके समान संसारमें विषय सुख है। अब आप विचार कीजिये इस प्रकारके सुखको कौन बुद्धिमान् ग्रहण कर सकता है ? यदि इस हालतमें कोई विद्याधर अथवा देवता उस आदमीको कुवेमेंसे निकाले तो वह आदमी निकलना चाहे या नहीं ? 'प्रभव' बोला कि एसा कौन मूर्ख है जो आपत्तिरूप समुद्रमें डूबता हुआ जहाजके समान उपकारी पुरुषकी इच्छा न करे ? यह सुनकर 'जंबूकुमार' बोला तो फिर तारन तरन श्री सुधर्मा स्वामीके होनेपर अपार संसारसागरमें मैं क्यों
बूं ? 'प्रभव' बोला कि हे भाई! तुमारे मातापिताओंका तुमारे ऊपर पूर्ण स्नेह है और आठोंही स्त्रियांभी तुमारे अनुकूल हैं ऐसे स्नेही स्वजनोंको तुम क्यों त्यागते हो।