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परिच्छेद.] जंबूकुमारका अपनी स्त्रियों के साथ विवाद. ६७ देखकरभी महा पराक्रमी 'जंबुकुमार' के हृदयमें न तो क्षोभही हुआ और न कोप, बल्कि गम्भीर स्वरसे चोरोंको यों बोला कि भाई ! ये सब मेरे ऊपर विश्वास करके सोये हुवे हैं मैं इनका रखवाला जागता हूँ अतः मेरे बैठे हुए तुम किसी वस्तुको हाथ नहीं लगा सकते हो। ...
उस पुण्यात्मा 'जंबूकुमार' का इस प्रकारका वचन सुनकर सबही चोर पाषाणकी मूर्तिके समान स्तब्ध हो गये, यह अवस्था देखकर 'प्रभव' अपने मनमें बड़ा विस्मित हुआ और विचारने लगा कि स्तंभन करनेकी तो यह विद्या आजही देखी, यदि यह विद्या हमको आजावे तो बहुतही लाभ हो, यह विचार करके 'प्रभव' 'जंबूकुमार' से बोला कि हे महात्मन् ! मैं 'विन्ध्य' राजाका पुत्र 'प्रभव' हूँ आप मुझे 'स्तंभनकारिनी' तथा 'मोक्षकारिनी' ये दो विद्या देकर उपकृत करो । मैं आपको इसके बदलेमें 'अवस्वापनी' तथा 'तालोद्घाटनी' ये दो विद्या देता हूँ, आप मुझे अपना मित्र समझ कर अवश्य ये विद्या दीजिये, यह सुनकर 'जंबूकुमार' बोला कि हे सखे! प्रातःकाल यह सब ऋद्धि छोड़कर तथा इन आठों स्त्रियोंको भी त्याग कर मुझे दीक्षा लेनी है और इस वक्त भी मैं भाव यतिके समान हूँ अत एव हे सखे ! संसारको त्यागनेवाले तथा अपने शरीरपर भी निस्पृरहनेवाले मुझको तुमारी विद्याओंसे क्या प्रयोजन ? यह सुन कर 'प्रभव' ने अपनी 'अवस्वापनी' विद्याको संहरण कर तथा 'जंबूकुमार' को नमस्कार कर हाथ जोड़कर कहा कि हे महा. स्मन् ! हम लोग तो इन वस्तुओंके लिए अपने प्राणोंको भी हथेलीपर लेकर फिरते हैं परन्तु तुम तो स्वाभाविक प्राप्त हुई लक्ष्मी तथा रतिके समान रूपवाली इन नवोदा खियोंको त्याग