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परिच्छेद . ]
अन्तिम केवली जंबूस्वामी.
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उसी चिंतासे प्रतिदिन द्वितीया के चंद्रमा की कला के समान कुशताको धारण करने लगी, एक दिन संतानकी चिन्तारूप दुःखको भुलाने के लिए 'ऋषभदत्त' मधुर वचनोंसे अपनी पत्नी से बोला कि प्रिये ! आज नन्दन वनकी उपमाको धारण करनेवाले वैभारगिरि पर्वतपर चलें और वहां जा कर स्वेच्छापूर्वक क्रीड़ा करें | ' धारिणी' ने पतिकी आज्ञा विनयपूर्वक स्वीकार की 'ऋषभ - दत्त' भी शीघ्रही वैभारगिरि पर्वतपर जाने के लिए रथ तैयार कराया, रथके अन्दर हंसोंकी रोमके बने हुवे दो बिछौने बिछवाये और अपनी प्रिया के साथ रथमें बैठ कर वैभारगिरि पर्वतकी ओर चल पड़ा | रस्तेमें अनेक प्रकारके जो दृश्य आते हैं 'ऋषभदत्त' अपनी प्रियाको विनोदके लिए सब हाथसे बताता जाता है । हे प्रिये ! ये सब मार्गमें चलनेवाले मुसाफरोंको छायाद्वारा आनन्द देनेवाले वृक्ष हैं यह राजा के घोड़ोंके फिरनेकी जमीन है जहांपर प्रतिदिन घोड़े फिराये जाते हैं और इसी लिए घोड़ों के मुखसे गिरे हुवे झागोंसे यह भूमि सुफ़ेद होरही है । देख इधर सहकारोंके वृक्षोंपर कोयल क्या मधुर स्वर से बोल रही है और ये सामने अपने रथसे डरकर हरिण भाग रहे हैं । इस उद्यान वनकी कैसी अद्भुत शोभा देख पड़ती है ?
इस प्रकार अपनी प्रिया के साथ विनोद करता हुआ 'ऋषभदत्त' वैभारगिरि नामा पर्वतपर पहुँचा, उस समय पर्वतकी शोभा अतीव रमणीय देख पड़ती थी । कहीं तो लहलहाये वृक्षोंपर तोतोंकी पंक्तियां बैठी हैं कहीं आम्र के वृक्षोंपर सहृदयजनोंके चित्तको हरन करनेवाली कोकिलायें मधुर स्वरकी ध्वनि कर रही हैं । कहीं वानरयें अपने बच्चोंको छातीसे लगाकर वृक्षोंपर चढ़ रही हैं कहीं पर्वतसे पानीके फुवारे झर रहे हैं और कहीं