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परिच्छेद.] जंबूकुमारका विवाहोत्सव-ब्रह्मचर्यका नियम. ६१ केवल हमारे उपरोधसेही विवाह कराना मंजूर करता है वरना उसकी इच्छा बिलकुल नहीं है, आप लोगोंको पीछेसे पश्चात्ताप न हो इस लिए हम पहलेही सूचना करते हैं, अब यदि आप हमारे पुत्रके साथ अपनी कन्याओंका विवाह करना उचित समझो तो सोच विचारके करो । यह सुनकर कन्याओंके मातापिता सकुटुम्ब विचारमें पड़ गये परन्तु उन्हें कुछभी रस्ता न सूझा । यह बात धीरे धीरे उन कन्याओंके कानोंमें पहुँची कि हमारे मातापिता इस बातके विचारमें पड़े हैं । इस लिए उन कन्याओंने मिलकर यह विचार किया कि जो विध गया सो मोति और रह गया सो पत्थर । यह विचार कर अपने पिताओंके पास जाकर बोली कि हे तात! आप लोगोंका विचार करना व्यर्थ है क्योंकि हमें जिसके प्रति आप प्रथम देचुके हो हमारे लिए तो वही हमारा पति है। हम अन्य वरको कभी भी मन, वचन, कायासे न इच्छेगी और लोकमें भी यह कहा जाता है कि
सकृजल्पन्ति राजानः सकृजल्पन्ति साधवः । सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ॥
इस लिए 'ऋषभदत्त' श्रेष्ठिका पुत्रही हमारी गति मति है और उसकेही अधीन हमारा जीवन है, यदि वह दीक्षा लेवेंगे तो हम भी दीक्षा लवेंगी उनके सुखमें हमारा सुख है और उनके दुःखमें हमारा दुःख है, जो वे करेंगे सोही हम करेंगी परन्तु 'जंबूकुमार' के सिवाय हमें अन्य वर सर्वथा मंजूर नहीं । पतिव्रता खियोंको उचित भी यही है कि अपने पतिके दुःखमें दुख मानें और सुखमें सुख, क्योंकि उनको पतिके सिवाय संसारमें और
१ आग्रह.