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५४ परिशिष्ट पर्व.
[चौथा सिद्धपुत्रका वचन निस्संदेह सत्य है यह स्वाही निश्चय कराता है कि अब हमारी आशा लता पल्लवित होगी और हे कल्याणि! इस स्वमके प्रभावसे तू सर्व लक्षणोंसे संपूर्ण और पवित्र चरित्रवाले पुत्ररत्नको जन्म देगी । 'ऋषभदत्त' के इस प्रकार वचन सुनकर 'धारिणी' खुशी होकर अपने पतिके कथनको विनयपूर्वक स्वीकार करके अपने शैनगृहमें (शय्याघरमें ) चली गई । वहां जाकर जिनेश्वरदेवकी स्तवना करने लगी और जागृतिसे रात्रिको व्यतीत करती है । इधर ब्रह्म देवलोकसे 'विद्युन्माली' के जीवने देवसंबंधि आयुको पूर्ण करके जैसे छीपके अन्दर मोति उत्पन्न होता है वैसेही 'धारिणी' की कुक्षीमें स्थान प्राप्त किया। एक दिन 'धारिणी' का बड़े आडंबरसे देवपूजा करनेका दोहला उत्पन्न हुआ, प्राय स्त्रियोंको गर्भानुसारही दोहले हुआ करते हैं जैसा जीव गर्भमें आता है उस जीवके कर्तव्य तथा पुन्यानुसार जो उस समय स्त्रीको इच्छा होती है उसकोही दोहला कहते हैं । 'ऋषभदत्त' श्रेष्ठिने बहुतसा धनव्यय करके 'धारिणी' का दोहला सानन्द पूर्ण किया, अब 'धारिणी' बड़े प्रयत्नसे अपने गर्भकी रक्षा करती हुई समय व्यतीत करती है । गर्भके बढ़नेसे 'धारिणी' के कपोल स्थल (गाल) प्रातःकालके चंद्रमाकी उपमाको धारण करने लगे । इस प्रकार नव मास पूर्ण होनेपर जैसे पूर्व दिशा जनानन्दी सूर्यको जन्म देती है वैसेही 'धारिणी' ने पुत्ररत्नको जन्म दिया।
अब 'ऋषभदत्त के घर चारों तर्फसे मोतियों तथा अक्षतोंसे भरे हुवे सुवर्ण और चाँदीके थाल आने लगे। कोई मंगलके निमित्त दुर्वा (ब) लाता है कोई आकर वधाई देता है और कितनीएक स्त्रियां उसके घरके आँगनमें आकर नृत्य करती