Book Title: Parikshamukh
Author(s): Ghanshyamdas Jain
Publisher: Ghanshyamdas Jain

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ ( २ ) प्रेरित होकर, हमने इस परीक्षामुख नामक महान् ग्रन्थके मूलसूत्रोंकी पहले सामान्यभाषा और नीचे विशेष भावार्थ लिखा है जिससे विद्यार्थीगण भी लाभ उठा सकते हैं । इस ग्रन्थ में प्रमाणके स्वरूप, संख्या, विषय और फल, इन चार बातोंका निर्णय किया गया है । इस ग्रन्थ में है अध्याय हैं जिनमें से पांच अध्यायोंमें ऊपर कहे हुए चार विषयोंका निरूपण है और अन्त में छूटे अध्याय में उन सबके आभासका वर्णन है । वे अध्याय, प्रमाणस्वरूप, प्रत्यक्ष, परोक्ष, विषय, फल और श्राभास, इसप्रकार हैं । फिर एक छन्द में ग्रन्थकारने अपने इस ग्रन्थको दर्पणकी उपमा दिखाई है, वह इसलिए कि इस ग्रन्थले प्रत्येक मनुष्य पदार्थोंकी हेयता और उपादेयताको उसीतरह जान सकता है, जिस तरह दर्पण से अपने मुखके सौंदर्य और वैरूपयको जान लेता है । इस अमूल्य ग्रन्थके कर्ता श्रीमाणिक्यनन्दि नामक श्राचार्य हैं। इनका सविस्तर जीवनचरित्र कहींसे उपलब्ध नहीं हुआ; परन्तु वीर नि. संवत् २४३६ के बाढ़ मास के जैन हितैषीके नवम अॅकसे यह मालूम हुआ है कि यह श्राचार्य इस्वी सन् ८०० में विद्यमान थे और इसी समयके लगभग कलंक देवादि और और आचार्योंने भी ख्याति लाभ की थी । इन्होंने अकलंकदेव के रचे हुए ग्रन्थोंका अनुमनन करके इन थोड़े से सूत्रोंमें न्याय के मूलसिद्धान्तका प्रथन किया है, यह बात अनन्तवीर्य श्राचार्य की बनाई हुई प्रमेयरत्नमाला नामकी टीकाके निम्न कसे विदित होती है । अकलंकवचोऽम्भोधेरुदधे येन धीमता । न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥ १ ॥ यह ग्रन्थ इतना गंभीर है कि इसका महात्म्य ही नहीं कहा जा सकता है । इस ग्रन्थ पर श्रीप्रभाचन्द्र आचार्यकी

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 104