Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् किया गया है। दृशिर् धातु के इरित् होने से 'इरितो वा' (३।१।५७) से 'अङ्' और पक्ष में सिच्’ आदेश होता है।
चङ्
(६) णिश्रिद्रुस्रुभ्यः कर्तरि चङ्।४८। प०वि०-णि-श्रि-द्रु-शुभ्य: ५।३ कर्तरि ७१ चङ् १।१।
स०-णिश्च श्रिश्च द्रुश्च स्रुश्च ते णिश्रिद्रुसुव:, तेभ्य:-णिश्रिद्रुशुभ्य: (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
अन्वय:-णिश्रिद्रुस्रुभ्यो धातुभ्य: श्च्लेश्चङ् कर्तरि लुङि।
अर्थ:-ण्यन्तेभ्य: श्रिद्रुस्रुभ्यश्च धातुभ्य: परस्य च्लिप्रत्ययस्य स्थाने चङ् आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि लुङि परत:।
उदा०-ण्यन्त (कृ) अचीकरत् । (ह) अजीहरत्। (श्रि) अशिश्रियत् (छ) अदुद्रुवत्। (स्रु) असुनुवत्।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(णिश्रिदुस्रुभ्यः) णि-अन्त धातु और श्रि, दु, त्रु (धातो:) धातुओं से परे (च्ले:) चिल प्रत्यय के स्थान में (चङ्) चङ् आदेश होता है (कतार) कर्तृवाची (लुडि) लुङ् प्रत्यय परे होने पर।।
उदा०-ण्यन्त (कृ) अचीकरत् । उसने करवाया (बनवाया)। (ह) अजीहरत् । उसने हरण करवाया। (श्रि) अशिश्रियत् । उसने सेवा की। (इ) अदुद्रवत् । उसने दौड़ लगाई। (ख) असुनुवत् । वह बह गया।
सिद्धि-अचीकरत् । कृ+णिच् । कार+इ। कारि। कारि+लुङ् । अट्+कारि+लि+ल। अ+कारि+चड्+तिप्। अ+करि+अ+त्। अ+कर+कर+अ+त्। अ+च+कर+अ+त् । अ+चि+कर+अ+त् । अ+ची+कर+अ+त्। अचीकरत् ।
यहां 'डुकृञ् करणे (तना०उ०) धातु से हेतुमान् अर्थ में हेतुमति च' (३।१ ।२६) से णिच् प्रत्यय है। णिजन्त कारि' धातु से इस सूत्र से चिल' प्रत्यय के स्थान में 'चङ्' आदेश होता है। णौ चङ्युपधाया हस्वः' (७।४।१) से धातु की उपधा को ह्रस्व (करि) होता है। णेरनिटि' (६।४।५१) से 'णि' का लोप और इतश्च' (३।४।१००) से तिप्' के इ का लोप होता है। 'चडि' (६।१।११) से धातु को द्वित्व, 'कुहोश्चः' (७।४।६२) से अभ्यास के क् को च होता है। सन्वल्लघुनि०' (७।४।९३) से सन्वद्भाव, सन्यत:' (७।४।७९) से अभ्यास के अ को इ (चि) और दी| लघो:' (७।४।९४) से उसे दीर्घ (ची) होता है। अचीकरत् ।
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