Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
View full book text
________________
तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५१५ से भाव में-देवदत्तेनास्यते । देवदत्त के द्वारा बैठा जाता है। कर्ता में-देवदत्त आस्ते। देवदत्त बैठता है।
सिद्धि-(१) देवदत्तेन ग्रामो गम्यते । यहां 'गम्लु गतौ' (भ्वा०प०) इस सकर्मक धातु से इस सूत्र से कर्मवाच्य में लट् लकार है। 'भावकर्मणो:' (१।३।१३) से कर्मवाच्य में आत्मनेपद और सार्वधातुके यक्' (३।१।६७) से यक्’ विकरण प्रत्यय होता है।
___ कर्मवाच्य में कर्म अभिहित (कथित) और कर्ता अनभिहित (अकथित) होता है। अत: अनभिहित कर्ता देवदत्त' में कर्तृकरणयोस्तृतीया' (२।३।१८) से तृतीया विभक्ति होती है और कथित कर्म में प्रातिपदिकार्थः' (२।३।४६) से 'ग्राम' में प्रथमा विभक्ति होती है।
(२) देवदत्तो ग्रामं गच्छति। यहां पूर्वोक्त गम्' धातु से कर्तृवाच्य में लट्' लकार है। 'कर्तरि शप' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण प्रत्यय होता है। 'इषुगमियमां छ:' (७।३।७७) से 'गम्' के 'म्' को 'छ' आदेश होता है।
___ कथित कर्ता देवदत्त में पूर्ववत् प्रथमा और अकथित कर्म 'ग्राम' में कर्मणि द्वितीया' (२।३।२) से द्वितीया विभक्ति होती है।
(३) देवदत्तेनास्यते। आस् उपवेशने (अदा०आ०) अकर्मक धातु से इस सूत्र से भाववाच्य अर्थ में लट् लकार है। शेष कार्य 'गम्यते' के समान है।
(४) देवदत्त आस्ते। यहां पूर्वोक्त 'आस्' धातु से इस सूत्र से कर्तृवाच्य में लट् लकार है। कर्तरि शप' (३।१।६८) से शप् विकरण प्रत्यय और 'अदिप्रभतिभ्यः शप:' (२।४।६२) से 'शम्' प्रत्यय का लुक् होता है।
विशेष-लकार-लट् । लिट् । लुट् । लुट् । लेट् । लोट् । लङ् । लिङ् । लुङ् । लङ् ये दश लकार हैं। इनमें लेट् लकार वैदिकभाषा में ही प्रयुक्त होता है। कृत्य+क्त+खलाः (भावे कर्मणि च)
__(४) तयोरेव कृत्यक्तखलाः १७०। प०वि०-तयो: ७।२ एव अव्ययपदम्, कृत्य-क्त-खलाः १।३ ।
स०-खल् इव अर्थो येषां ते खलाः । कृत्याश्च क्तश्च खलाश्च ते-कृत्यक्तखलः (बहुव्रीहिः)।
अनु०-कर्मणि भावे चाकर्मकेभ्य इति चानुवर्तते।
अर्थ:-धातोर्विहिताः कृत्यसंज्ञका: क्त: खलाश्च प्रत्यया तयोर्भावकर्मणोरर्थयोरेव भवन्ति । सकर्मकेभ्यो धातुभ्यस्ते कर्मणि, अकर्मकेभ्यो धातुभ्यश्च ते भावेऽर्थे भवन्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org