Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् . उदा०-युयोध्यस्मज्जुहाराणमेन: (यजु० ४ ।१६)। प्रीणाहि । प्रीणीहि (का०सं० ४०।१२)।
आर्यभाषा-अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (धातो:) धातु से परे (लोट:) लोट् सम्बन्धी (लस्य) लादेश (से:) सि-प्रत्यय के स्थान में (हि) हि-आदेश होता है और वह (वा) विकल्प से (अपित्) अपित् होता है।
उदा०-युयोध्यस्मज्जुहाराणमेन: (यजु० ४।१६)। हमसे कुटिलता रूप पाप को दूर कीजिये। प्रीणाहि । प्रीणीहि । तू तृप्त कर।
सिद्धि-(१) युयोधि । यहां 'यु मिश्रणेऽमिश्रणे च' (अदा०प०) धातु से लोट् च' (३।३।१६२) से 'लोट' प्रत्यय और तिपतसझि०' (३।४।७८) से लोट' के 'ल' के स्थान में सिप्' आदेश और इस सूत्र से 'सि' के स्थान में 'पित्' हि-आदेश होता है। 'अडितश्च' (६।४।१०३) से हि' को 'धि' आदेश होता है। 'हि' आदेश के 'पित्' होने से वह 'सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से 'डित्' नहीं होता है। अत: 'यु' धातु को 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण हो जाता है। यहां 'बहुलं छन्दसि (२।४।७६) से शप्' के स्थान में श्लु' आदेश और 'श्लौ' (६।१।१०) से 'यु' धातु को द्विवचन होता है।
(२) प्रीणाहि । यहां प्री तर्पणे कान्तौ च' (क्रया उ०) धातु से पूर्ववत् 'सिप' प्रत्यय के स्थान में पित् 'हि' आदेश है। हि' आदेश के पित् होने से वह पूर्ववत् 'डित्' नहीं होता है, अत: ई हल्यघो:' (६।४।११३) से 'श्ना' प्रत्यय के 'आ' को 'ई आदेश नहीं होता है।
(३) प्रीणीहि। यहां पूर्वोक्त प्रीज्' धातु से पूर्ववत् 'सिप' प्रत्यय के स्थान में अपित् हि' आदेश है। 'हि' आदेश के अपित् होने से वह सार्वधातुकमपित्' (१।२।४) से 'डित्' होता है। 'डित्' होने से ई हल्यघो:' (६।४।११३) से 'श्ना' प्रत्यय के 'आ' को 'ई' आदेश होता है।
विशेष-जो सार्वधातुक प्रत्यय पित् होता है वह डित् नहीं होता और जो पित् नहीं होता है वह डित् होता है-पिच्च ङिन्न, डिच्च पिन्न। इस विषय में यह वैयाकरणों का सार वचन है। नि-आदेश:
(५) मेनिः ।८६। प०वि०-मे: ६।१ नि: १।१। अनु०-लस्य, लोट इति चानुवर्तते । अन्वय:-धातोर्लोटो लस्य मेनिः।
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