Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 574
________________ ૬૬૧ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५६१ आर्धधातुकसंज्ञा (१) आर्धधातुकं शेषः ।११४ । प०वि०-आर्धधातुकम् १।१ शेष: १।१। उक्तादन्य: शेषः । अनु०-धातोरित्यनुवर्तते। अर्थ:-धातोर्विहिता: शेषा: तिशिद्भिन्ना: प्रत्यया आर्धधातुकसंज्ञका भवन्ति। उदा०-लविता। लवितुम् । लवितव्यम्। आर्यभाषा-अर्थ-(धातोः) धातु से विहित (शेष:) तिङ् और शित् से भिन्न प्रत्ययों की (आर्धधातुकम्) आर्धधातुक संज्ञा होती है। उदा०-लविता । काटनेवाला। लवितुम् । काटने के लिये। लवितव्यम् । काटना चाहिये। सिद्धि-(१) लविता । लू+तृच् । लू+इट्+तृच् । लो+इ+तृ । लवितृ+सु । लविता। यहां तू छेदने (ऋयाउ०) धातु से 'वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। यह प्रत्यय तिङ्' और शित्' से भिन्न है। अत: इस सूत्र से इसकी सार्वधातुक संज्ञा है। ‘आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७।२।३५) से इसे 'इट' आगम होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (३७ ।३।८४) से लू' धातु को गुण होता है। शेष सिद्धि-कार्य 'एवुल्तृचौं' (३।१।१३३) के प्रवचन में देख लेवें। (२) लवितुम् । यहां पूर्वोक्त 'लू' धातु से तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां क्रियार्थायाम्' (३ ३ ।१०) से आर्धधातुक तुमुन्' प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) लवितव्यम् । यहां तव्यत्तव्यानीयर:' (३।१।९६) से आर्धधातुक तव्यत्/तव्य प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। आर्धधातुकसंज्ञा (२) लिट् च।११५। प०वि०-लिट् (लुप्तषष्ठीनिर्देश:) च अव्ययपदम् । अनु०-आर्धधातुकम् इत्यनुवर्तते। अर्थ:-लिट: स्थाने यस्तिङ् आदेश: सोऽपि आर्धधातुकसंज्ञको भवति । उदा०-त्वं पेचिथ । त्वं शेकिथ। स जग्ले । स मम्ले। आर्यभाषा-अर्थ-(लिट) लिट् के स्थान में जो तिङ् आदेश है उसकी (च) भी (आर्धधातुकम्) आर्धधातुक संज्ञा होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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