Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 576
________________ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः ५६३ उदा०-स लविषीष्ट । वह कटाई करे। स पविषीष्ट । वह पवित्र करे । सिद्धि - (१) लविषीष्ट । लू+लिङ् । लू+सीयुट् +त । लू+सीय्+सुट्+त । लू+इट्+सी०+स्+त। लो+इ+षी+ष+ट। लविषीष्ट । यहां 'लूञ छेदने' (क्रया० उ० ) धातु से 'आशिषि लिङ्लोट (३ । ३ । १७३) से आशीर्वाद में 'लिङ्' प्रत्यय है। उसके स्थान में 'त' आदेश की इस सूत्र से आर्धधातुक संज्ञा है । 'लिङः सीयुट् ' ( ३।४।१०२ ) से 'सीयुट् ' और 'सुट् तिथो:' ( ३ | ४ | १०७ ) से 'सुट्' आगम होता है। 'त' प्रत्यय के आर्धधातुक होने से 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७/३/८४) 'लू' धातुको गुण होता है। यदि यहां 'त' प्रत्यय सार्वधातुक हो तो वह 'सार्वधातुकमपित' ( १/२/४ ) से ङित् ' होकर क्ङिति च ' (१1१14 ) से गुण का बाधक हो जाये। 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५ ) से 'इट्' आगम, 'आदेशप्रत्यययो: ' ( ८1३1५९) से षत्व और 'टुना ष्टुः' (८/४/४०) से टुत्व होता है । (२) पविषीष्ट । 'पूङ् पवनें' (भ्वा०आ०) पूर्ववत् । उभयसंज्ञा (४) छन्दस्युभयथा । ११७ । प०वि० - छन्दसि ७ । १ उभयथा अव्ययपदम् । अर्थ :- छन्दसि विषये तिङशित्-आदयः प्रत्यया उभयथा= सार्वधातुकसंज्ञका आर्धधातुकसंज्ञकाश्च भवन्ति । उदा० - वर्धन्तु त्वा सुष्टुतयः (ऋ० ७ ।९९ । ७) । स्वस्तये नावमिवा रुहेम (ऋ० १० १७८ । २ ) । ससृवांस विशृण्विरे ( ऋ० ४ | ८ | ६ ) | सोममिन्द्राय सुन्विरे (ऋ० ७ । ३२ ।४ ) । उपस्थेयाम शरणा बृहन्ता (ऋ० ६ । ४७।८) । आर्यभाषा-अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में तिङ्- शित् आदि प्रत्यय (उभयथा ) सार्वधातुक और आर्धधातुकसंज्ञक होते हैं। - संस्कृत भाग में देख लेवें । सिद्धि - (१) वर्धन्तु । वर्धि+लोट् । वर्धि+शप्+झि। वर्धि+अ+अन्ति । वर्ध+अ+अन्तु । वर्धन्तु । उदा० यहां णिजन्त 'वृधु वृद्धौं' (भ्वा०आ०) धातु से 'लोट् च' (३ । ३ । १६२ ) से 'लोट्' प्रत्यय और उसके स्थान में 'झि' आदेश है। 'झोऽन्तः' (७ 1१1३) से 'झू' को 'अन्त' आदेश और 'एरु:' (३।४।७६ ) से 'उत्व' होता है। 'कर्तरि शप्' (३ | १ | ६८ ) से 'शप्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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