Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar

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Page 566
________________ ५५३ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः (३) इज्यासुः । यहां 'झि' के स्थान में 'झेर्जुस्' (३।४।१०८) से 'जुस्' आदेश है। (४) जागर्यात् । यहां जागृ निद्राक्षये' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् लिङ्' और उसके लादेश तिप्' को 'यासुट्' आगम है। उसके 'कित्' होने से जाग्रोऽविचिणणङित्सु (७।२।८५) से जागृ' धातु को गुण होता है। शेष कार्य पूर्ववत् हैं। ऐसे ही-जागर्यास्ताम्, जागर्यासुः । रन्-आदेशः (लिङि) (७) झस्य रन् ।१०५ । प०वि०-झस्य ६१ रन् १।१। अनु०-लस्य इत्यनुवर्तते। अर्थ:-धातो: परस्य लिङ्सम्बन्धिनो लादेशस्य झ-प्रत्ययस्य स्थाने रन्-आदेशो भवति। उदा०-ते पचेरन् । ते यजेरन्। आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (लिङ:) लिङ् सम्बन्धी (लस्य) लादेश (झस्य) झ-प्रत्यय के स्थान में (रन्) रन् आदेश होता है। उदा०-ते पचेरन् । वे सब पकावें । ते यजेरन् । वे सब यज्ञ करें। सिद्धि-(१) पचेरन् । पच्+लिङ् । पच्+शप्+सीयुट्+त। पच्+अ+सीय+सुट्+त। पच्+अ+सीय+स्+त । पच्+अ+ईय्+o+त। पच्+अ+ई+o+त। पचेत। यहां 'डुपचष् पाके' (भ्वा० उ०) धातु से विधिनिमन्त्रण' (३।३।१६१) से 'लिङ्' प्रत्यय और उसके लादेश 'झ' प्रत्यय के स्थान में इस सूत्र से रन्' आदेश है। लिङ: सीयुट्' (३।४।१०२) से सीयुट्' आगम, 'सुट् तिथो:' (६ ।४।१०७) से सुट्' आगम और 'लिङ: सलोपोऽनन्त्यस्य' (७/२७९) से सीयुट्' और 'सुट' के 'स्' का लोप और लोपो व्योर्वलि' (६।१।६४) से 'य' का लोप होता है। कर्तरि शप (३।१।६८) से 'श' विकरण प्रत्यय और 'आद्गुणः' (६।११८४) से गुण रूप एकादेश (अ+ई=ए) होता है। (२) यजेरन् । 'यज देवपूजासंगतिकरणदानेषु' (भ्वा० उ०) पूर्ववत् । अत्-आदेशः (लिङि) (८) इटोऽत्।१०६ । प०वि०-इट: ६।१ अत् १।१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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