Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
५१३ है। गुरु के द्वारा स्वाध्याय का प्रवचन करना चाहिये। (उपस्थानीय) यह अन्तेवासी गुरु का उपस्थान करनेवाला है। शिष्य के द्वारा गुरु का उपस्थान करना चाहिये। (जन्य) उत्पन्न होनेवाला। उसके द्वारा उत्पन्न होना चाहिये। (आप्लाव्य) स्नान करनेवाला। इसके द्वारा स्नान करना चाहिये। (आपात्य) आक्रमण करनेवाला। इसके द्वारा आक्रमण करना चाहिए।
सिद्धि-(१) भव्यः । भू+यत् । भो+य। भव्य+सु। भव्यः ।
यहां 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से 'अचो यत्' (३।१।९७) से 'यत्' प्रत्यय कर्ता अर्थ में निपातित है। तयोरेव कृत्यक्तखलाः ' (३।४ १७०) से केवल भाव अर्थ में
यत्' प्रत्यय था। वा-वचन से भाव अर्थ में भी होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८६) से 'भू' धातु को गुण और 'धातोस्तन्निमित्तस्यैव' (६ ।४।७७) से 'अन्' आदेश होता है।
(२) गेय: । यहां गै शब्दे' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् यत्' प्रत्यय है। 'ईद्यति' (६।४।६५) से 'गा' धातु को ईत्व और पूर्ववत् गुण होता है। इस धातु से 'यत्' प्रत्यय कर्ता और कर्म अर्थ में होता है।
(३) प्रवचनीयः। यहां प्र' उपसर्गपूर्वक विच परिभाषणे' (अदा०प०) धातु से 'तव्यत्तव्यानीयरः' (३।१।९६) से 'अनीयर्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'अनीयर' प्रत्यय कर्ता और कर्म अर्थ में होता है।
(४) उपस्थानीय: । यहां 'उप' उपसर्गपूर्वक 'ठा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् अनीयर्' प्रत्यय है। इस सूत्र से वह कर्ता और कर्म अर्थ में होता है।
(५) जन्यः । यहां जनी प्रादुर्भावे (दिवा०आ०) धातु से 'वा०-तकिशसियतिचतिजनीनामुपसंख्यानम्' (३।१।९७) से 'यत्' प्रत्यय है। इस सूत्र से वह कर्ता और भाव अर्थ में होता है।
(६) आप्लाव्य: । यहां 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'प्लुङ् गतौ' (भ्वा०आ०) धातु से 'ओरावश्यके' (३।१।१२५) से ‘ण्यत्' प्रत्यय है। 'अचो णिति' (७।२।११५) से प्लु' धातु को वृद्धि और 'धातोस्तन्निमित्तस्यैव' (६।१।७७) से 'आव्' आदेश होता है।
(७) आपात्यः। यहां 'आङ्' उपसर्गपूर्वक 'पत्लू गतौ' (भ्वा०प०) धातु से ऋहलोर्ण्यत्' (३।१।१२४) से 'ण्यत्' प्रत्यय है। 'अत उपधाया:' (७।२।११६) से 'पत्' धातु को उपधावृद्धि होती है। लकाराः (कर्तरि कर्मणि भावे च)
(३) लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः ।६६ ।
प०वि०-ल: १।३ कर्मणि ७१ च अव्ययपदम्, भावे ७१ च अव्ययपदम्, अकर्मकेभ्य: ५।३ ।
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