Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (२) अग्निचित्या-यज्ञवेदी की भूमि पर श्येनचित और कंकचित आदि भेद से अनेक प्रकार के यज्ञकुण्ड बनाये जाते हैं। उनमें जो विशिष्ट प्रकार का अग्निचयन होता है उसे अग्निचित्या (अग्निचयन) कहते हैं।
इति कृत्यप्रत्ययप्रकरणम्।
अथ कृत्प्रत्ययप्रकरणम् ण्वुल्+तृच्
(१) ण्वुल्तृचौ।१३३। प०वि०-ण्वुल्-तृचौ १।२। स०-ण्वुल च तृच् च तौ-ण्वुल्-तृचौ (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) । अर्थ:-सर्वेभ्यो धातुभ्य: परौ कर्तरि कारके ण्वुल्तृचौ प्रत्ययौ भवत: । उदा०-(ण्वुल्) कारक: । हारकः । (तृच्) कर्ता । हर्ता।
आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातुमात्र से परे कर्ता कारक में (ण्वुल्तृचौ) ण्वुल् और तृच् प्रत्यय होते हैं।
उदा०-(ण्वुल्) कारकः । करनेवाला। हारकः । हरनेवाला। (तृच्) कर्ता। करनेवाला। हर्ता। हरनेवाला।
सिद्धि-(१) कारकः । कृ+ण्वुल्। कृ+वु। कार+अक। कारक+सु। कारकः ।
यहां डुकृञ् करणे (तना०3०) धातु से इस सूत्र से कर्ता अर्थ में 'एवुल्' प्रत्यय है। ‘ण्वुल्' प्रत्यय के णित्' होने से कृ' को 'अचो मिति' (७।२।११६) वृद्धि होती है। युवोरनाकौ' (७।१।१) से वु' के स्थान में 'अक-आदेश होता है। 'हृञ् हरणे (भ्वा०उ०) धातु से-हारकः ।
(२) कर्ता । कृ+तृच् । कृ+तृ। कर+तृ। कर्तृ+सु। कर्ता।
यहां पूर्वोक्त कृ' धातु से इस सूत्र से कर्ता अर्थ में तृच्' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से कृ' को गुण होता है। पूर्वोक्त 'ह' धातु से-हर्ता।
विशेष-(१) अनुबन्ध । 'एल' प्रत्यय में 'ण' अनुबन्ध 'अचो णिति (७।२।११५) आदि से अङ्ग की वृद्धि के लिये है। ल' अनुबन्ध लिति' (६।१।१८७) से प्रत्यय से पूर्व अच् के उदात्त-स्वर के लिये है। तृच्’ में च्' अनुबन्ध चित:' (६।१।१५७) से अन्तोदात्त स्वर के लिये है। . (२) कृत-युल और तृप प्रत्यय की कृदतिङ्' (३।१।९३) से कृत्' संज्ञा है। कर्तरि कृत (३।४९७) से कृत-संज्ञक प्रत्यय कर्ता कारक में होते हैं। ऐसे ही सर्वत्र समझें।
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