Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (७) तमितोः । यहां 'तमु काङ्क्षायाम्' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् तोसुन्' प्रत्यय और पूर्ववत् 'इट्' आगम होता है। तमितो:-आकाङ्क्षा करना।
(८) विजनितोः। यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक जनी प्रादुभावें (दि०आ०) धातु से इस सूत्र से तोसुन्' प्रत्यय और पूर्ववत् ‘इट्' आगम होता है। विजनितो:-उत्पन्न होना।
विशेष-(१) भावलक्षणम्-आ संस्थातो वेद्यां शेरते। यज्ञ की समाप्ति तक वेदी पर बैठते हैं। यहां वेदी पर बैठना, यज्ञ की समाप्ति क्रिया से लक्षित किया जारहा है, अत: भावलक्षण (क्रियालक्षण) अर्थ में सम्+स्था धातु से तोसुन्' प्रत्यय है। ऐसे ही सर्वत्र क्रियालक्षण को समझ लेवें।
(२) यहां संस्थातो:' आदि शब्दों की क्त्वा तोसुन्कसुन:' (१।१।३९) से अव्ययसंज्ञा और पूर्ववत् सुप्' का लुक् होता है। कसुन् (भावलक्षणे)
(१२) सृपितृदोः कसुन्।१७। प०वि०-सृपि-तृदो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) कसुन् १।१ ।
स०-सृपिश्च तद् च तौ-सृपितृदौ, तयो:-सृपितृदो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-छन्दसि, तुमर्थे भावलक्षणे इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तुमर्थे भावलक्षणे सृपितृदिभ्यां धातुभ्यां कसुन्।
अर्थ:-छन्दसि विषये तुमर्थे भावलक्षणे चार्थे वर्तमानाभ्यां सृपितृदिभ्यां धातुभ्यां पर: कसुन् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(सृपि:) पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् (यजु० १।२८)। (तृद्) पुरा जर्तृभ्य आतृद: (ऋ० ८।१।१२) ।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तुमर्थे) तुमुन् प्रत्यय के भाव अर्थ में और (भावलक्षणे) क्रिया के लक्षण में विद्यमान (सृपितृदोः) सृपि और तृद् (धातो:) धातुओं से परे (कसुन्) कसुन् प्रत्यय होता है।
उदा०-संस्कृतभाग में देख लेवें। सिद्धि-(१) विसृपः । वि+सृप्+कसुन्। वि+सृप्+अस्। विसृपस्+सु । विसृपः ।
यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक (भ्वा०प०) धातु से तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में तथा क्रिया के लक्षण में 'कसुन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के कित्' होने से डिति च' (१।१५) से
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