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________________ ४६८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् (७) तमितोः । यहां 'तमु काङ्क्षायाम्' (दि०प०) धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् तोसुन्' प्रत्यय और पूर्ववत् 'इट्' आगम होता है। तमितो:-आकाङ्क्षा करना। (८) विजनितोः। यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक जनी प्रादुभावें (दि०आ०) धातु से इस सूत्र से तोसुन्' प्रत्यय और पूर्ववत् ‘इट्' आगम होता है। विजनितो:-उत्पन्न होना। विशेष-(१) भावलक्षणम्-आ संस्थातो वेद्यां शेरते। यज्ञ की समाप्ति तक वेदी पर बैठते हैं। यहां वेदी पर बैठना, यज्ञ की समाप्ति क्रिया से लक्षित किया जारहा है, अत: भावलक्षण (क्रियालक्षण) अर्थ में सम्+स्था धातु से तोसुन्' प्रत्यय है। ऐसे ही सर्वत्र क्रियालक्षण को समझ लेवें। (२) यहां संस्थातो:' आदि शब्दों की क्त्वा तोसुन्कसुन:' (१।१।३९) से अव्ययसंज्ञा और पूर्ववत् सुप्' का लुक् होता है। कसुन् (भावलक्षणे) (१२) सृपितृदोः कसुन्।१७। प०वि०-सृपि-तृदो: ६।२ (पञ्चम्यर्थे) कसुन् १।१ । स०-सृपिश्च तद् च तौ-सृपितृदौ, तयो:-सृपितृदो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)। अनु०-छन्दसि, तुमर्थे भावलक्षणे इति चानुवर्तते। अन्वय:-छन्दसि तुमर्थे भावलक्षणे सृपितृदिभ्यां धातुभ्यां कसुन्। अर्थ:-छन्दसि विषये तुमर्थे भावलक्षणे चार्थे वर्तमानाभ्यां सृपितृदिभ्यां धातुभ्यां पर: कसुन् प्रत्ययो भवति । उदा०-(सृपि:) पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् (यजु० १।२८)। (तृद्) पुरा जर्तृभ्य आतृद: (ऋ० ८।१।१२) । __ आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तुमर्थे) तुमुन् प्रत्यय के भाव अर्थ में और (भावलक्षणे) क्रिया के लक्षण में विद्यमान (सृपितृदोः) सृपि और तृद् (धातो:) धातुओं से परे (कसुन्) कसुन् प्रत्यय होता है। उदा०-संस्कृतभाग में देख लेवें। सिद्धि-(१) विसृपः । वि+सृप्+कसुन्। वि+सृप्+अस्। विसृपस्+सु । विसृपः । यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक (भ्वा०प०) धातु से तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में तथा क्रिया के लक्षण में 'कसुन्' प्रत्यय है। प्रत्यय के कित्' होने से डिति च' (१।१५) से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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