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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः अर्थ:-छन्दसि विषये तुमर्थे भावलक्षणे चार्थे वर्तमानेभ्य: स्थाऽऽदिभ्यो धातुभ्य: परस्तोसुन् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-(स्था:) आ संस्थातोर्वेद्यां शेरते (का०सं० ११ ।१६)। आ समाप्ते: सीदन्तीत्यर्थः । (इण्) पुरा सूर्यस्योदेतोराधेय: (का०सं० ८।३)। (कृ) पुरा वत्सानामपाकर्ता: (का०सं० ३१ ।१५)। (वदिः) पुरा वदितोरग्नौ प्रहोतव्यम् । (चरिः) पुरा प्रचरितोग्नीध्रीये होतव्यम् (गोब्रा० २।२।१०)। (हु:) आ होतोरप्रमत्तस्तिष्ठति। (तमि:) आ तमितोरासीत (तैब्रा० १।४।४।५)। (जनि:) आ विजनितोः सम्भवामेति (तै०सं० २।५।१।५)।
आर्यभाषा-अर्थ-(छन्दसि) वेदविषय में (तुमर्थे) तुमुन् प्रत्यय के अर्थ में (भावलक्षणे) क्रिया के लक्षण में वर्तमान (स्थाजनिभ्यः) स्था, इण, कृज्, वदि, चरि, हु, तमि, जनि (धातोः) धातुओं से परे (तोसुन्) तोसुन् प्रत्यय होता है।
उदा०-संस्कृतभाग में देख लेवें।
सिद्धि-(१) संस्थातोः। सम्+स्था+तोसुन्। सम्+स्था+तोस् । संस्थातोस्+सु । संस्थातोः।
यहां सम्' उपसर्गपूर्वक छा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से तुमुन् प्रत्यय के भाव अर्थ में तथा क्रिया के लक्षण में तोसुन्' प्रत्यय है। आ संस्थातो:=समाप्ति तक। समाप्त होना क्रियालक्षण है।
(२) उदेतोः । यहां उत्' उपसर्गपूर्वक 'इण् गतौ' (अदा०प०) धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् तोसुन्' प्रत्यय है। सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से 'इण्' धातु को गुण होता है। उदेतो: उदय होना।
(३) अपाकर्तो: । यहां 'अप' और 'आङ्' उपसर्गपूर्वक कृ' धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् तोसुन्' प्रत्यय है। कृ' धातु को पूर्ववत् गुण होता है। अपाको दूर करना।
(४) वदितोः। यहां वद व्यक्ताव्यां वाचि' (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् 'तोसुन' प्रत्यय है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (८।२।३५) से तोसुन्' प्रत्यय को 'इट्' आगम होता है। वदितो:=बोलना।
(५) प्रचरितो: । यहां 'प्र' उपसर्गपूर्वक 'चर गतौ (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् तोसुन्' प्रत्यय और पूर्ववत् इट्' आगम होता है। प्रचरितो:=प्रचरण करना।
(६) होतोः । यहां हु दानादनयोः, आदाने चेत्येके (जु०प०) धातु से इस सूत्र से पूर्ववत् 'तोसुन्' प्रत्यय और हु' धातु को पूर्ववत् गुण होता है। होतो: हवन करना।
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