Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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२०८
इनि:
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(१) कर्मणीनि विक्रियः । ६३ । प०वि०-कर्मणि ७।१। इनि १ ।१ ( लुप्तविभक्तिको निर्देश: )
विक्रिय: ५।१ ।
अनु० - भूते इत्यनुवर्तते ।
अन्वयः-कर्मण्युपपदे विक्रियो धातोरिनिभूते ।
अर्थः-कर्मणि कारके उपपदे वि-पूर्वात् क्रीञ् - धातोः पर इनि: प्रत्ययो भवति, भूते काले ।
उदा० - सोमं विक्रीतवानिति सोमविक्रयी । रसं विक्रीतवानिति रसविक्रयी ।
आर्यभाषा-अर्थ- (कर्मणि) कर्म कारक उपपद होने पर (विक्रिय:) वि-उपसर्गपूर्वक क्रीञ् (धातोः) धातु से परे (इनि:) इनि प्रत्यय होता है (भूते) भूतकाल में ।
उदा०- सोमं विक्रीतवानिति सोमविक्रयी । सोम बेचनेवाला। रसं विक्रीतवानिति रसविक्रयी । रस- दूध बेचनेवाला ।
सिद्धि-सोमविक्रयी। यहां 'सोम' कर्म उपपद होने पर वि-उपसर्गपूर्वक डुक्रीञ् द्रव्यविनिमये' (क्रया० उ० ) धातु से इस सूत्र से 'इनि' प्रत्यय है । 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७/३/८४) से 'क्री' धातु को गुण होता है। सोम+विक्रे+इन् । सोमविक्रयिन्+सु । 'सौ च' (६।४।१३) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ होता है। 'हल्डयाब्भ्यो० ' (६ /१/६६ ) से 'सु' का लोप और 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' (८/२/७ ) से 'नू' का लोप होता है। ऐसे ही - रसविक्रयी ।
विशेष - अनुवृत्ति - कर्म की अनुवृत्ति होने पर फिर 'कर्मणि' पद का ग्रहण निन्दा अर्थ के लिये किया गया है। सोम और रस बेचना शास्त्र में निषिद्ध है। जो शास्त्रविरुद्ध आचरण करता है उसे निन्दा में सोमविक्रयी आदि कहा जाता है.
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क्वनिप्
(१) दृशेः क्वनिप् । ६४ ।
प०वि० - दृशे: ५ ।१ क्वनिप् १ । १ । अनु० - कर्मणि, भूते इति चानुवर्तते । अन्वयः - कर्मण्युपपदे दृशेर्धातोः क्वनिप् भूते।
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