Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषा-अर्थ- (अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (उद्घन:) उद्घन शब्द (अप) अप्-प्रत्ययान्त निपातित है, यदि उसका अर्थ (अत्याधानम्) अत्याधान हो। जिस काष्ठ पर रखकर दूसरे काष्ठ छीले जाते हैं, उसे अत्याधान कहते हैं।
उदा०-उद्घनः । अत्यधान (नेह इति भाषा)। सिद्धि-उद्घनः । उत्+हन्+अप् । उद्+घन्+अ। उद्घन+सु। उद्घनः ।
यहां उत्' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'हन्' धातु से अधिकरण कारक में तथा अत्याधान अर्थ में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय निपातित है। निपातन से हन्' के स्थान में 'घन्' आदेश होता है। अप् (निपातनम्)
. (६३) अपघनोऽङ्गम्।८१। प०वि०-अपघन: ११ अङ्गम् १।१। अनु०-अप् इत्यनुवर्तते।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानोऽपघनशब्दोऽप् प्रत्ययान्तो निपात्यते, यदि तच्छरीराङ्गं भवति ।
उदा०-अपघन: पाणि: । अपघन: पाद: । अपहन्यते येन स:-अपघन: । अत्राङ्गशब्देन शरीरस्य पाणिपादमेव गृह्यते नाङ्गमात्रम् ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (अपघन:) अपघन शब्द (अप) अप्-प्रत्ययान्त निपातित है, यदि उसका अर्थ (अङ्गम्) शरीर का अङ्ग हो।
उदा०-अपघन: पाणि: । हाथ। अपघन: पाद: । चरण। यहां अङ्ग से शरीर के पाणि और पाद का ग्रहण किया जाता है, अङ्गमात्र का नहीं।
सिद्धि-अपघन: । अप+हन्+अप। अप+घन्+अ। अपघन+सु। अपघनः ।
यहां 'अप्' उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त हन्' धातु से करण कारक में तथा शरीराग-विशेष अर्थ में इस सूत्र से 'अप्' प्रत्यय है। निपातन से हन्' के स्थान में 'घन्' आदेश होता है। अप
(६४) करणेऽयोविद्रुषु।८२। प०वि०-करणे ७१ अय:-वि-द्रुषु ७।३।
स०-अयश्च विश्च द्रुश्च ते-अयोविद्रवः, तेषु-अयोविद्रुषु (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।
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