Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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तृतीयाध्यायस्य तृतीयः पादः
३२१ अर्थ:-अकर्तरि च कारके भावे चार्थे छन्दोनाम्नि च विषये वर्तमानाद् वि-पूर्वात् स्तृ-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति ।
उदा०-विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः । विष्टारबृहती छन्दः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीरे) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में (च) तथा (छन्दोनाम्नि) छन्दोनाम विषय में विद्यमान (वौ) वि-उपसर्गपूर्वक (स्त्र:) स्तृ (धातो:) धातु से परे (घञ्) पञ् प्रत्यय होता है।
___ उदा०-विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः । विष्टारपङ्क्ति नामक एक वैदिक छन्द है। विष्टारबहती छन्दः । विष्टारबहती नामक एक वैदिक छन्द है।
सिद्धि-विष्टारः। विस्तृ+घञ् । वि+स्तार+अ। वि+ष्टा+अ। विष्टार+सु। विष्टारः।
यहां 'वि' उपसर्गपूर्वक 'स्तृञ् आच्छादने (क्रयाउ०) धातु से छन्दोनाम विषय में इस सूत्र से घञ् प्रत्यय है। अचो णिति (७।२।११५) से स्तु' धातु को वृद्धि होती है। 'छन्दोनाम्नि च' (८।३।९४) से षत्व और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४०) से टुत्व होता है।
विशेष-छन्द-विष्टारपङ्क्तिरन्त:' (छन्दशास्त्र ३।४२) के प्रमाण से जिस छन्द के मध्य में दो पाद जगती छन्द के और आदि तथा अन्त के दो पाद गायत्री छन्द के होते हैं, उसे विष्टारपक्ति छन्द कहते हैं। जैसे :
आने तव श्रवो यवो, महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो। बृहद् भानो शवसा वाजमुक्थ्यं, दधासि दाशुषे कवे।। (ऋ० १० ११४०।१)
विष्टारबृहती छन्द का पिंगलच्छन्दशास्त्र में उल्लेख नहीं है। घञ्
(१७) उदि ग्रहः ।३५। प०वि०-उदि ७ १ ग्रह: ५।१ । अनु०-घञ् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-अकर्तरि कारके भावे च उदि ग्रहो धातोर्घञ् ।
अर्थ:-अकर्तरि कारके भावे चार्थे वर्तमानाद् उत्पूर्वाद् ग्रह-धातो: परो घञ् प्रत्ययो भवति।
उदा०-उद्ग्राह:।
आर्यभाषा-अर्थ-(अकीर) कर्ता से भिन्न (कारके) कारक में (च) और (भावे) भाव अर्थ में विद्यमान (उदि) उत् उपसर्गपूर्वक (ग्रह:) ग्रह (धातो:) धातु से परे (घञ्) घञ् प्रत्यय होता है।
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