Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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तृतीयाध्यायस्य प्रथमः पादः उदा०-आनाय्यो दक्षिणाग्निः । सदा सुरक्षित न रहनेवाली दक्षिणाग्नि।
सिद्धि-आनाय्य: । आङ्+नी+ण्यत् । आ+नै+य। आ+नाय्+य। आनाय्य+सु । आनाय्यः।
यहां आङ्पूर्वक ‘णीञ प्रापणे (भ्वा०प०) धातु से इस सूत्र से ण्यत्' प्रत्यय है। अचो णिति (७।२।११५) से वृद्धि होती है। निपातन से आय्-आदेश होता है। यहां 'अचो यत्' (३।१।९७) से से यत्' प्रत्यय प्राप्त था।
विशेष-दक्षिणाग्नि। (१) आनाय्य शब्द दक्षिणाग्नि के लिये रूढ है। श्रौत-यज्ञ की अग्नि अरणी मन्थन से उत्पन्न की जाती है। उसे यजमान गार्हपत्य नामक वेदी में गार्हपत्याग्नि के रूप में सुरक्षित रखता है। वहां आहवनीय और दक्षिणाग्नि नामक दो वेदियां और होती हैं। यजमान गार्हपत्य नामक वेदी में से अग्नि लेकर उन दोनों वेदियों में अग्नि का आधान करता है। जैसे ही आहुतियां समाप्त होती हैं, वे दोनों अग्नियां भी समाप्त हो जाती हैं, ये अनित्य हैं। किन्तु गार्हपत्यग्नि सदा सुरक्षित रखी जाती है।
(२) एक ऐसी भी प्रथा है कि गार्हपत्याग्नि में से दक्षिणाग्नि न लेकर वैश्यकुल से अथवा चूल्हे से यह अग्नि लाई जाती है। अत: इसे आनाय्य कहते हैं। निपातनम् (ण्यत्)
(५) प्रणाय्योऽसम्मतौ।१२८ । प०वि०-प्रणाय्य: १।१ असम्मतौ ७।१।।
स०-न विद्यते सम्मतिर्यस्मिन् सोऽसम्मति:, तस्मिन्-असम्मतौ (बहुव्रीहि:)। सम्मति:-पूजा। असम्मति:=पूजाऽभावः ।
अनु०-ण्यत् इत्यनुवर्तते। अर्थ:-असम्मतावर्थे प्रणाय्य: शब्दो ण्यत्-प्रत्ययान्तो निपात्यते। उदा०-प्रणाय्यश्चोर: । असम्मानित इत्यर्थः ।
आर्यभाषा-अर्थ-(असम्मतौ) असम्मान अर्थ में (प्रणाय्य:) प्रणाय्य शब्द (ण्यत्) ण्यत्-प्रत्ययान्त निपातित है।
उदा०-प्रणाय्यश्चोरः । असम्मानित चोर पुरुष। सिद्धि-प्रणाय्य: । प्र+णी+ण्यत् । प्र+नै+य। प्र+नाय+य। प्रणाय्य+सु । प्रणाय्यः ।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक ‘णी प्रापणे' (भ्वा० उ०) धातु से इस सूत्र से ‘ण्यत्' प्रत्यय है। अचो णिति' (७।२।११५) से वृद्धि और आय्-आदेश निपातित है। 'अचो यत् (३।१।९७) से यत्' प्रत्यय प्राप्त था।
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