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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण
दिगम्बर आचार्यों ने भी उतर पाब्द की अनेक दृष्टिकोणों से व्याख्या की है। काषायपाहुड़ के चूर्णिकार के अनुसार उत्तराध्ययन उत्तरपदों का वर्णन करता है। यहां उत्तर शब्द समाधान सूचक है।' अंगपण्णति में उत्तर के दो अर्थ हैं—१. किस ग्रंथ के पश्चात् पढ़ा जाने वाला २ प्रश्नों का उत्तर देने वाला। उत्तर के बाद दूसरा शब्द अध्ययन है। यद्यपि अध्ययन शब्द सामान्यतया पढ़ने के लिए प्रयुक्त होता है किन्तु प्रस्तुत संदर्भ में इसका प्रयोग पारे च्छेद, प्रकार और अध्याय के अर्थ में हुआ है।
__ सूत्र शब्द का सामान्य अर्थ है जिसने शब्द कम तथा अर्थ विपुल हो। जैसे पातञ्जलयोगसूत्र, तत्त्वार्थसूत्र, ब्रह्मसूत्र आदि। उत्तर ध्ययन में सूत्ररूपता का अभाव है, विस्तार अधिक है। यद्यपि आत्म रामजी ने अनेक उद्धरणों से इसे सूत्रग्रंथ सिद्ध करने का प्रयत्न किस है किन्तु सामान्य व्यवहार में प्रयुक्त सूत्र शब्द का लक्षण इस ग्रंथ में घटित नहीं होते है। जाल शर्गेन्टियर का भी मानना है कि सूत्र शब्द का प्रयोग इसके लिए सटीक नहीं हुआ है क्योंकि विधिविधान, दर्शन ग्रंध तथा व्याकरण आदि अंघों में सूत्रात्मक शैली अपनाई जाती है। ऐसा अधिठा संभव लगता है कि वैदिक परम्परा में सूत्र शब्द का प्रयोग अधिक प्रर्यालत ध। जैनों ने भी परम्परा से सूत्रात्मक शैली न होते हुए भी ग्रंथ के साथ सूत्र शब्द जोड़ दिया। कर्तृत्व
नियुक्तिकार के अनुसार यह ग्रंथ किसी एक कर्ता की कृति नहीं, अपितु संकलित ग्रंथ है। उनके अनुसार इसके कर्तृत्व को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है'
१. अंगप्रभव—दूसरा अध्ययन (परीषहप्रविभक्ति) २ जिन्भाषित-दसवां अध्ययन (दुनपत्रक) ३. प्रत्येकबुद्ध-भाषित—आठवां अध्ययन (कापिलीय) ४. संबाद-समुत्थित—नयां और तेईसवां अध्ययन (नमिप्रव्रज्या, केशिगौतमीय)
नंदी में उत्तरायणाई यह बहुवचनात्मक नाम मिलता है। उत्तराध्ययन के अंतिम पलोक तथा नियुक्ति में भी 'उत्तरज्झाए' ऐसा बहुववनात्मक नाम मिलता है। चूर्णिकार ने छत्तीस उत्तराध्यगगों का एक श्रुतस्कंध (एक ग्रंथ रूप) स्वीकार किया है। इस बहुवचनात्मक नाम से रह फालित होता है कि उत्तराध्ययन अध्ययनों का योग मात्र है, एककातक ग्रंथ नहीं। उत्तराध्ययन की भाषा-शैली की भिन्नता देखकर भी यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि यह किसी एक व्यक्ति की कृति नहीं है। ये सब का रचे गए. इनका ब्यवस्थित रूप कब बना, यह कहना कठिन है। कुछ विद्वानों का मानना है कि इसके प्रथम १८ अध्ययन प्राचीन हैं तथा उत्तरवर्ती अठारह अध्ययन अर्वाचीन । किन्तु इस मत की पुष्टि का कोई सबल प्रमाण नहीं है। इतना निश्चित है कि इसके कई अध्ययन प्राचीन हैं और कई अर्गचीन। आचार्य तुलसी के अभिमत से उत्तराध्ययन के अध्ययन ई०. पू० ६०० से ईस्वी सन् ४०० अर्थात् लगभग एक हजार वर्ष की धार्मिक एवं दार्शनिक विचार-धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं । वीर-निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद देवर्धिगणी ने प्राचीन एवं अर्वाचीन अध्ययनों का संकलन कर इसे एकरूप कर दिया। इनका प्रबंधन
१. कपा. भा.१ चू. प्र. ११० उत्तरमिदि च उत्तरज्झे २ अगप्पणत्ति ३/२५.२६ ।
पणेदि। ३. उनि ४; अंगप्पभवा जिणभासिया य पत्तेबद्द संदाया।
४ नदी ७८।