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नियुक्तिपंधक महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है अत: ये मूलसूत्र कहलाते हैं। ___ मूलसूत्र की संख्या एवं उनके नामों को बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है किन्तु उत्तराध्ययन को सभी ने एकरवर से मुलसत्र माना है। प्रो बेडर ने उत्तराध्ययन. आवश्यक और दशकालिक. ..इन तीनों को भूलसूत्र के रूप में स्वीकृत किया है। विंटरनित्स ने इन तीनों के अतिरिक्त डिनियुक्ति को भी ग्रहण किया है। डॉ शूब्रिग मिडनियुक्ति, ओपनियुक्ति सहित पांच ग्रंथों को मूलसूत्र के रूप में स्वीकृत करते हैं। प्रो. हीरालाल कापडिया ने इनके अतिरिक्त दशदैकालिक की चूलिकाओं को भी मूलसूत्र में परिगणित किया है । तेरापंथ की मान्यता के अनुसार दशवकालिक, उत्तराध्यधन, नंदी और अनुयोगद्वार--- ये चार सूत्र मूलसूत्र के अंतर्गत हैं। मूलसूत्र का निभाजन विकग की ११ वी १२ वीं शताब्दी के बाद हुआ, ऐसा अधिक संभव लगता है क्योंकि उत्तराध्ययन की चूर्णि एवं टीका में ऐसः कोई उल्लेख नहीं मिलतः है। आचार्य तुलर्म के अनलार मूलसूत्र का विभाजन विक्रम की जगैदहवीं शताब्दी मे होना चाहिए। नामकरण
उत्तराध्ययन सूत्र में तीन शब्दों का प्रयोग है.-१. उार २. अध्र' ३. और सुत्र । उत्तर शब्द के तीन अर्थ हो सकते हैं—प्रधान, जबाब और पर्ती : आचार्य हरिभद्र के अनुसार उत्तर शब्द का प्रयोग प्रधान या अति प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है। प्रो. जेकोबी, बेबर और शान्टियर इसी अर्थ से सहमत हैं। उत्तर शब्द का प्रयोग परवर्ती या अंतिम अर्थ में भी होता है, जैसे-उत्तरकांड, उत्तररामायण आदि। जैन परम्परा मे यह मान्यता बहुत प्रसिद्ध है कि महादीर ने अपने निर्वाण से पूर्व ५५ अध्ययन एण्य-पाप के तथा छत्तीस अपुट्ठवागरणाई अर्थात् बिना पूछे हत्तीस अध्ययनों के उत्तर दिए अत: विद्वानों का मानना है कि यह 'छत्तीस अपुट्टवागरणाई शब्द उत्तराध्ययन से ही संबंधित होना चाहिए क्योंकि जैन परम्प] में अन्य कोई ऐसा ग्रंथ नहीं है, जिसके छत्तीस अध्ययन हों। इस कथन की पुष्टि में उत्तराध्ययन की अंतिम गाथा को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया जाता है
इइ पाउकरे बुद्धे, नायए परिनिव्युए।
छत्तीसं उत्तरज्माए, भवसिद्धीय सम्मए।। यहाँ परिनिन्दुए' शब्द संदेहास्पद है। शान्त्याचार्य ने परिनिव्वुए शब्द का अर्थ स्वस्थीभूत किया है अतः इस दृष्टि से इसे महावीर का अंतिम उपदेश नहीं माना जा सकता।
नियुक्तिकार के अनुसार उत्तर शब्द क्रम के अर्थ में प्रयुक्त है। उत्तराध्ययन आचारांग सूत्र के बाद पढ़ा जाता था अत: इसका नाम उत्तराध्ययन पड़ा। टीकाकार शान्त्याचार्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा है कि दशवकालिक की रचना के बाद यह सूत्र दशवकालिक के बाद पढ़ा जाने लगा। प्रो. लायमन के अनुसार आचारांग आदि ग्रंथों के उत्तरकाल में रचा होने के कारण यह उत्तराध्ययन कहा जाता है। चूर्णिकार ने उत्तर के आधार पर इसके अध्ययनों की तीन प्रकार से योजना की है--१. स-उत्तरपहला अध्ययन २. निरुत्तर-छत्तीसवां अध्ययन ३. सउत्तर-निरुत्तर–बीच के सारे अध्ययन ।
१. A History of the canonical literature of the Jainas,Page 44, 45. २. उनि ३; कमउत्तरेप पगयं आयारस्सेब उवरिमाई तु। तम्हा उ उत्तरा खल. अज्झयणा होति नायव्वा ।। ३. उगांटी प. ५, आरत्तत्तु दशवकालिकोत्तरकालं पश्यंत इति ।