Book Title: Nandanvan Kalpataru 2006 00 SrNo 17
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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(२) तज्जीवनं हन्त वीतम् !! COM
व्यथा येन भुक्ता दृगयं निपीतम् ।
सुख्खेनैव तज्जीवनं हन्त वीतम् ॥१॥ न येनाऽर्चितं पादपद्मं खलानाम् यशश्चारणैस्तस्य लोके प्रगीतम् ॥२॥
अमर्षं बुधा दीप्तसप्तार्चिमाहुः
पं प्रीतिबन्धं हिमोशीरशीतम् ॥३॥ किमर्थं मरौ केऽपि गच्छन्तु जीवाः लसत्काननं तद्यदेभिः पीतम् ॥४॥
महासत्त्वताया विचित्रो हि दण्डः यदेकाकिनाऽऽयुर्मूगेन्द्रेण नीतम् ॥५॥
यशःप्रार्थिना सत्कवीनां मयाऽपि कृतजायनं नाम काव्यं प्रणीतम् ॥६॥
स्वदृष्ट्यैव सञ्जीविता प्राणवल्ली
कुत: कौशलं शोभने ! द्रागधीतम् ॥७॥ मरिष्यामि नो वृश्चिकानुनदंशैः गलं कृष्णतां कालकूटेन नीतम् ॥८॥
पयः पायिता येन नो दन्दशूकाः
वयो निर्भयं तस्य नूनं व्यतीतम् ॥९॥ सखे ! आवयोरन्तरं तावदेतत् त्वयाऽऽक्रन्दितं यन्मया तद्धि गीतम् ॥१०॥
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