Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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एवं भार्येरितः सिंहो, लङ्घनत्रितयं व्यधात् ।
___ अहं पृथग् भविष्यामी-त्युवाच स्वजनानपि ॥ ५९॥ ___ भावार्थ-ए प्रमाणे भार्याना समजाववाथी प्रेरायेला सिंहे त्रण दिवस लांघण करी, अने पोताना सगांना. !! संबंधीओने कधुके, हुं जुदो यइश ॥ ५९॥
तेषां बलेन वेश्माध, निधानाधं च सोऽग्रहीत् । ॥२५॥
समुद्रस्तु ततः शत्रु-जययात्राचिकीरभूत् ॥ ६०॥ भावार्थ-सगां-संबंधीओनी लागवग पहोंचाही तेओना बळ वडे सिंहे समुद्र पासेथी घर अने निधाननो अरषो भाग ग्रहण कर्यो. त्यार पछी समुद्रे श्रीशत्रुजयतीर्थनी यात्रा करवानो अभिलाष कर्यो. ॥ ६ ॥
निधानार्थ व्यये तीर्थे, नागपुण्यार्थमित्यसौ।। यावच्चलति सिंहेन, तावद्राज्ञे निवेदितम् ॥ ६१ ॥ लेभे निधानं मात्रा, यात्राव्याजादसौ ततः।
तदादाय व्रजन्नास्ति, न दोषोऽथ मनाग मम ॥ ६२ ॥ भावार्थ-'श्री शत्रुजय तीर्थमा जइ, आ बाकी रहेला निधानमांना द्रव्यनो नागश्रेष्ठीना पुण्यने माठे व्यय करतो ।।
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