Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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ना..
च.
|३३|
सभ्यान् सभायामाभाष्य, विसृज्य च नृपानसौ । सौधान्तः पूजयन् देवान् ददर्श व्यन्तरं पुरः ॥ ८४ ॥
भावार्थ
ये --त्यार बाद कचेरीमां सभ्यो साथै केटळीक बातचीत करी, राजाओने सम्मानपूर्वक विसर्जन करी, पोताना गृहमंदिरमां देवोने पूजे छे तेवामां पोतानी सन्मुख एक व्यंतर जोयो ॥ ८४ ॥ -
पृष्टः कस्त्वमिति क्षोणि-भृता स व्यन्तरोऽवदत् । तामलिप्त्यामहं नाग-नामा प्राग् गोष्ठिकोऽभवम् ॥ ८५ ॥
भावार्थ- समुद्रपाल राजाए पूछयुं के— 'तुं कोण छे ?' । त्यारे ते व्यंतरदेवे कसुं के हुं तामलिप्ति नगरीफां प्रथम नाग नामनो गोष्ठिक हतो ॥ ८५ ॥
पूर्वजैः कारिते चैत्ये, सारां विदधतो मम ।
कुटुम्ब सकलं क्षीणं, देवस्वेनैव पोषितम् । ८६ ॥
भावार्थ- मारा पूर्वजोए बंधावेळा जिनमंदिरनी सार संभाळ करतां देवद्रव्ययीज पोषण पामेलं मारुं सघ ँ कुटुंब नाश पाम्युं ॥ ८६ ॥

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