Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri, 
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand

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Page 42
________________ भावार्थ - जे प्राणीने सुकृत संभळाव्यं न होय, तो पण जो ते स्वयमेत्र सुकृतवी श्रद्धा करे, भने पछी कोइ पण गतिमां ज्ञानादि भावधी जाणे तो ते पण ते सुकृतनुं फळ प्राप्त करे छे ।। ९९ ।। अन्यथा सुकृतं तन्वन् स्वजनः स्वजनाख्यया । व्यवहारप्रीतिभक्ती -रेव ज्ञापयति ध्रुवम् ॥ १०० ॥ भावार्थ - जे कुटुंबीए पोताना कुटुंबीना अंतकाळे जे सुकृत संभळाच्युं न होय ते सुकृत पाछळथी पोताना कुटुंबीना नामे करे तो ते खरेखर व्यवहार साचवे छे अने मरनार उपरनी पोतानी प्रीति अने भक्तिज जणावे छे ॥ १०० ॥ अथ तस्मिंस्तिरोभूते, व्यन्तरे क्षोणिनायकः । साक्षात् पुण्यफलं दृष्ट्वा ऽभवत्तत्रैव सादरः ॥ १०१ ॥ भावार्थ - हवे ते व्यंतर देव अदृश्य थइ गया पछी, राजा समुद्रपाल पुण्यनुं प्रत्यक्ष फल देखी पुण्योपार्जन करवामां आदरयुक्त थयो. ॥ १०१ ॥ बन्धोरपि श्रेयो-विषये काङ्क्षताऽन्यदा । तामलिप्त्यां तदाहूति-हेतोः मैषीन्निजो नरः ॥ १०२ ॥ ना. च. ||३८|

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