Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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पुरुषेधको मारी बढायो, परंतु नीचे जवाने बदले उलटो बीजे पगथीये प्राप्त थयो, त्यार पछी बीजे पगथीये चढ्यो, कमसर पर्वतना शिखर उपर चड़ी छेवडे मुक्तिमां जइ बेठो " ।। २३०-२३१ ॥
प्रभो ! फलं किमस्येति, पृष्टाः श्रीगुरवो जगुः । स्फटिकाद्रिर्जिनधर्मः, सोपानं मानुषो भवः ॥ २३२ ॥
च.
भावार्थ- - आ प्रमाणे आश्चर्यकारी स्वप्न जोइ जागृत थयेला नामाक राजाए प्रातःकाले मुनिराजने पूछ के -' प्रभो ! आ स्वप्यनुं फळ शुं ? ' त्यारे गुरुमहाराजे कछु के-" जे तुं स्फटिक पर्वत उपर चड्यो ते जिनधर्म ||८३३ जाणवो, ते पर्वतना पहेला पगथीया रूप मनुष्य जन्म समजवो ॥ २३२ ॥
अतो धर्माच्च यत्नेनाऽन्तरायस्वल्पकर्मणा ।
पात्यमानोऽपि सत्त्वेना - ऽच्युतस्त्वं स्वर्गमिष्यसि ॥ २३३ ॥
ना.
भावार्थ - आ जिनधर्म रूपीं स्फटिक पर्वतना पहेला पगथीयाथी अंतराय रूपी स्वल्प कर्म वडे गडावातो छतां सत्र वढे दृढ रहेलो तुं पतित नहीं थयो छतो देवलोक रूपी बीजे जइ ॥ २३३ ॥
पगथी ये

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