Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri, 
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधिपक्षगच्छीय (अंचलगच्छीय) श्रीमेरुतुंगसूरि विरचितम्॥ श्रीनाभाकराजचरित्रम्. ॥TER. (भाषांतर सहित.) विधिपक्षगच्छीय मुनिमंडल अग्रेसर मुनिमहाराज श्रीगौतमसागरजीना सदुपदेशथी--- श्री कच्छ-भूजनगरना रहेवाशी विधिपक्षगच्छीय लालनगोत्रना शा. डोसाभाइ लालचंद तथा शा. करमचंद लालचंदे, तेमना मातुश्री इंद्राबाह संवत १९७५ मा श्री सिद्धक्षेत्रमा चातुर्मास रहेला ते समये देवद्रव्यनी रक्षा माटे आ ग्रंथ छपाच्यो. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܝܫܫ - शंभु मीन्टींग प्रेस-पालीताणा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना. आ परम पवित्र श्रीनाभाकराजानं चरित्र अंचलगच्छयय श्रीमरुतुंगमूरिए १४६४ नी सालमां रच्युं छे. चरित्र सरल अने बोधक छे. देवद्रव्यनो विनाश करवाथी अथवा तो तेने आडे मार्गे वापरवायी प्राणीने केटलां असम कष्टो भोगवा पडे छे तेनो तादृश चितार आ ग्रंथमां आपवामां आव्यो छे. अमारां मातुश्रीए १९७५ नी साकमां श्रीसिद्धक्षेत्रमा चतुर्मास करेल, तेनी यादगीरी माटे आ ग्रंथ मुनिमहाराजश्री गौतमसागरजी महाराजनी प्रेरणाथी अमोए छपाव्यो छे. आवा उपयोगी ग्रंथने प्रसिद्ध करवा माटे अमोने प्रेरणा करनार उक्त मुनिमहाराजश्रीनो उपकार मानवामां आवे छे. आ ग्रंथ खास करीने व्याख्यानने योग्य होवाथी प्रतने आकारे छपाव्यो छे. संस्कृत नहीं जाणनारा पण आ बोधक चरित्र वांची शके माटे भाषांतर पण साये आपवामां आव्युं छे. आशा छे केआ ग्रंथ वांची बुद्धिमानो तेनो सार ग्रहण करशे. ली. प्रसिद्धकर्ता Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - नीचेने सरनामे लखवायी या ग्रंथ भेट मळी शकोअंचलगच्छना उपाश्रयनो बहीवट करनार, शा. साकरचंद भारमल. ठे० आणदाबावाना चकला सामे-जामनगर (जिल्लो-काठियावार) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ श्री जिनेश्वराय नमः ॥ ॥ ॐ श्रीविधिपक्षगच्छाधिराज - युगप्रधान श्री १००८ श्री आर्यरक्षितंगुरुभ्यो नमः । श्री विधिपक्षगच्छाचार्य - श्रीमेरुतुङ्गसूरिविरचितम् - गुर्जर भाषानुवाद समलङ्कृतम् श्रीनाभाकराजचरित्रम् । सौभाग्यारोग्यभाग्योत्तममहिममतिख्यातिकान्तिप्रतिष्ठा तेजः शौर्योजसम्पद्विनयनययशः सन्ततिप्रीतिमुख्याः । भावा यस्य प्रभावात् प्रतिपद उदयं यान्ति सर्वे स्वभावात्, श्रीजीरापल्लिराजः स भवतु भगवान् पार्श्वदेवो मुदे वः ॥ १ ॥ भावार्थ - जे प्रभुना माहात्म्यथी सौभाग्य, आरोग्य, भाग्य, उत्तम महिमा, सद्बुद्धि, प्रसिद्धि, कांति, सुकीर्ति, तेज, शौर्य, बळ, संपत्ति, विनय, सुनीति, यश, पुत्र-पुत्र्यादि परिवार, प्रीति विगेरे सर्वे पदार्थो निरंतर स्वाभाविक उदय आवे छे, ते श्रीमान् जीरापल्लि अधिराज पार्श्वनाथ भगवान् तमारा हर्षने माटे थाओ. ॥ १ ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्रीवीरेजिनमानम्य, सम्यग् नाभाकभूपतेः । देवद्रव्याधिकारेऽद-श्चरितं कीर्तयिष्यते ॥२॥ भावार्थ-प्रभु श्रीमहावीरने सम्यक् प्रकारे नमस्कार करीने, देवद्रव्यना अधिकार उपर भीनाभाक-|| राजानुं चरित्र कही ॥२॥ श्रीनामाकनरेन्द्रस्य, कथा श्रुतिपथागती। चरित्र विधेव जांगुली लोभ-विषं हन्ति विवेकिनाम् ॥ ३॥ 1॥२॥ भावार्थ-नेम जांगुली मंत्र सर्पना विषनो. विनाश करेछे-जांगुली मंत्रथी सर्पनुं विष उतरी जाय छे, तेम श्रवणपथमा आवेली देवद्रव्य 'परत्वेनी आ नामाकनरेन्द्रनी कथा विवेकी पुरुषोना लोभरूपी विषनो विनाश करेछे. ॥३॥ श्रीनाभाकनृपाख्यान-पानप्रीतमनाः पुमान् । ___ सदा सन्तोषसंतुष्टः, सर्वसम्पत्तिभाग भवेत् ॥ ४॥ ___भावार्थ-जे पुरुष श्रीनाभाकराजानी कथानुं पान करवामां हर्षित चित्तवाळो छे, ते निरंतर संतोष बडे || संतुष्ट थइ सर्व प्रकारनी समृद्धिने भजवावाळो थाय छे-ते पुरुषने सर्व प्रकारनी समृद्धि अनायासे प्राप्त थाय छे. ॥४॥ || Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र ॥३॥ पुरातनमुनिप्रोक्तं, पुण्यं पुण्यार्थिनां प्रियम् । नाभाकचरितं चित्री-यते केषां न चेतसि ? ॥५॥ भावार्थ-प्राचीन महर्षिोए कहेलं, अने पुण्यना अर्थी भव्य प्राणीओने अतीव प्रियकर एवं श्रीनाभाक- राजानुं पवित्र चरित्र कोना चित्तमां आश्चर्य नथी करतुं १ अर्थात् पवित्र महापुरुष श्रीनामाकराजानुं चरित्र असाधारण भने निर्दोष होवाथी दरेक पुरुषोना चित्तने विषे आश्चर्य उत्पन्न करनारुं छे. ॥५॥ हवे ग्रन्थकार चरित्रनो आरंभ करे छतथाहि- जम्बूद्वीपाभिधे दीपे, क्षेत्रे भरतनामके । श्रीपार्श्वनाथश्रीनेमिनाथयोरन्तरेऽभवत् ॥ ६ ॥ अनेकश्रीपतिब्रह्म-जिष्णुश्रीविभूषितम् । क्षितिप्रतिष्ठितं नाम, पुरं स्वपुरजित्वरम् ॥ ७॥ भावार्थ-जंबूद्वीप नामना दीपने विष भरतक्षेत्रमा श्रीपार्श्वनाथ अने श्रीनेमिनार्थ जिनेश्वरने आंतरे क्षितिप्रतिष्ठित नामर्नु नगर हतुं, जे नगर अनेक श्रीपति, अनेक ब्रह्म, अनेक जिष्णु, अने अनेक श्रीद वडे शोभायमान होवाथी तेणे स्वर्गपुरने पण जीती लीधु इतुं । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाभाक चरित्र. ___स्वर्गपुरनी अंदर श्रीपति एटले कृष्ण एकज छे, ज्यारे क्षितिप्रतिष्ठितनगरमा श्रीपति एटले साहुकारो तथा राजाओ अनेक हता । स्वर्गपुरनी अंदर ब्रह्म एटले ब्रह्मा एकज छे, ज्यारे आ नगरमां ब्रह्म एटळे ब्राह्मणो अनेक रहेता हता । स्वर्गपुरनी अंदर जिष्णु एटले इन्द्र एकज छे, ज्यारे आ नगरनी अंदर जिष्णु-जयनशील एटले विजेता मोटा मोटा सामंतो तथा योद्धाओ अनेक हता । स्वर्गपुरमा श्रीद एटले कुवेर एकज छे, ज्यारे आ नगरनी अंदर श्रीद एटले लक्ष्मीनुं दान करनारा दानवीर पुरुषो अनेक इता। आ प्रमाणे दरेक रीते स्वर्गपुरयी क्षितिप्रितिष्ठितनगर चडिया हतुं ॥६-७॥ सर्वाङ्गरत्नाभरणाभिभूषितैयदीयभोगीशशतैस्तिरस्कृता । शीर्षस्फुरद्रत्नवरैकमण्डिता, भोगावती युक्तमगाद्रसातलम् ॥ ८॥ भावार्थ-जे क्षितिप्रतिष्ठित नगरीमा वसता सर्वांगे रत्नोना आभूषणोयी शोभायमान सेंकडो २भोगीशो १ कविओनो संकेत के-स्वर्गपुरनी अंदर कृष्ण, ब्रह्मा, इन्द, अने कुबेर रहे । १ भागीसाने विष शिरोमणि-समर्थ भौगी पुरुषो। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बढे तिरस्कार पामेली ‘भोगावती नगरी रसातलमां चाली गइ ते युक्त ज थयुं छे. कारण के - ते भोगावती नगरी, मस्तकने विषे स्फुरायमाण उत्तम शेषमणिवाळा एकज भोगीश वडे शोभती छे, ज्यारे आ नगरीमा अनेक भोगीशो एटल समर्थ भोगीओ रहे छे । वळी भोगावती नगरीमा रहेता भोगीश एटले शेषनागना मस्तकने विषे ज रत्न- मणि छे, ज्यारे आ नगरीमां वसता सेंकडो भोगीशाने सर्वांगे रत्नोनां आभूषणो छे । आ प्रमाणे क्षितिप्रतिष्ठित नगरीथी दरेक रीते उतरती भोगावती नगरी लज्जा पामीने रसातलमां चाली गइ छे॥८॥ तत्र श्रीमान् महारूप-निरूपितपुरन्दरः । राजा नाभाकनामाऽभूद्, अभूमिः पापतापयोः ॥ ९ ॥ भावार्थ - ते नगरने विषे समृद्धिमान, पोतानां अलौकिक सौंदर्य बडे दृष्टान्तभूत करेलो छ इन्द्रने जेणे एवो, तथा पाप अने संताप अस्थान नाभाक नामनो राजा हतो ॥ ९ ॥ पुरा कलाकेलिरनङ्गमावं, वधूयेनापि जगाम दिव्यन् । १ भोगावती नामेनी सर्पैनी नगरी पातालमा छे, अने तेमां सपना स्वामी शेषनाग रहे हैं, एवो कविसमय छे। २ भोगी एंटले सर्पों, तेभोनो ईश एटले स्वामी - शेषनाग ३ दुष्ट कार्यों तथा संताप करतो ज नहीं । नामांक | चरित्र.'' ॥ ५ ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H वधूसहस्रैरपि सैप खेलन, भवाप सर्वाङ्गमनोहरत्वम् ॥१०॥ भावार्थ-पुरातन समयमां, कामदेव घे खीओ साये खेलतो छतो पण अनंगपणाने पाम्यो हतो, परंतु आ || नाभाक नाभाकराजा तो हजारो स्त्रीभोनी साथे क्रीडा करतो छतो पण सर्वांगे मनोहरपणाने पाम्यो हतो । कामदेव रति अने प्रीति नामनी वे ज स्त्रीओ'साथे क्रीडा करवा छतां अनंगपणाने एटले अंगरहितपणाने पाम्यो हतो, पण आ || चरित्र राजा तो हजारो स्त्रीभोनी साथे खेलतो हतो छतां पण सर्षोंगे मनोहरपणाने पाम्यो हतो ॥१०॥ तमन्यदा मुदासीनं, सभायामेत्य भूपतिम् । . सत्प्राभृतं पुरस्कृत्य, श्रेष्ठी कश्चिन्नमोऽकरोत् ॥११॥ भावार्थ-एक दिवसे ते राना पोतानी सभामा हर्षित चित्ते बेठो हतो, ते अवसरे कोइक श्रेष्ठीए आवीने राजानी सन्मुख सुंदर भेटणुं मूकी नमस्कार कर्यो ॥ ११ ॥ ___ कस्त्वं कुतः समायातः, कुत्र यासीति भूभृता । पृष्टे स्पष्टमयाचष्ट, श्रेष्ठी राजनिशम्यताम् ॥ १२ ॥ भावार्थ-त्यारे राजाए ते शेठने पूछयु के, तमे कोण छो ? क्यांची आव्या छो ? अने क्यां जाओ छो?।। 31 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्र.. HD || तेना प्रत्युत्तरमा श्रेष्ठीए स्पष्ट रीते कडं के, हे राजन् ! मारुं समस्त वृत्तान्त सांभळी ॥ १२ ॥ श्रेष्ठी धनायनामाऽहं, श्रीवसन्तपुरे वसन् । श्रीशश्रृंजययात्रार्थ, चलितोऽत्र समागमम् ॥ १३ ॥ नाभाकं भावार्थ-९ वसंतपुर नगरमां निवास करूं छु, मारुं नाम धनाढ्य शेठ छे, अने श्रीशचुंजय तीर्थनी यात्रायें | जतां अहीं मारुं आव_ थयु छ ॥ १३ ॥ कः श्री शत्रुञ्जयस्तत्र, यात्रया किं फलं नृपे। . पृच्छतीति भाग्यलभ्याः, सभ्याः पौराणिका जगुः ॥ १४ ॥ भावार्थ-त्यारे, भाग्यथी जेमनी प्राप्ति थइ शके एवा महा धुरंधर सभामां बेठेला पौराणिक पुरुषाने राजाए । पूछयु के, ' श्री शत्रुजय तीर्थ कयुं ? तथा तेनी यात्राथी भुं फळ थाय ? । ए प्रश्ननो उत्तर पौराणिक पुरुषोए | राजाने स्पष्टतापूर्वक समजावतां कद्दु के-॥ १४ ॥ इक्ष्वाकुभूमौ भरतेऽत्र पूर्व, श्रीनाभिनामा कुलकृद् बभूव । Ramain Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरित्रः सबल्लभाऽभूदु मरुदेवी तस्याः; कुक्षौ जिनः श्रीवृषभोऽवतीर्णः ॥ १५ ॥ भावार्थ-पहेला आ भरतक्षेत्रमा इक्ष्वाकुभूमिने विषे श्रीनाभि नामनां कुलकर यया, तेमने मरुदेवी नामनी ना नाभाक श्रेष्ठ पत्नी हती. तेमनी कुतिमा श्रीऋषभदेव जिनेन्द्रनो जन्म थयो ।॥ १५ ॥ असंख्यवर्षाणि न धर्मकर्माऽभिज्ञो जनोऽभूत् समयानुभावात् । ॥८॥ प्रकाश्य तन्मार्गयुगं तदवा ऽवतीर्य सोऽनीतिपथं लुलोप ॥ १६ ॥ भावार्थ-कालना प्रभावयी असंख्यवर्षोयी जनसमुदाय धर्म अने कृषि-वाणिज्यादि कर्मथी अजाण हतो. ते सर्वेने प्रभुए आ भरतक्षेत्रमा अवतरीने धार्मिक अनुष्ठान तथा कृषि-वाणिज्य विगैरे व्यवहारिक क्रियाओ बतावी. आ प्रमाणे धर्म अने कर्म ए पन्ने प्रकारना माग समजावी अनीति मार्गनो तद्दन लोप कर्योः ॥ १६ ॥ 'आदौ स पाणिग्रहणं विधाय, शतं सुतानां च विभज्य राज्यम् । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भुत्त्वा सुखं नीतिपथं विधाय, तप्त्वा तपो ज्ञानमनन्तमाप ॥१७॥ भावार्थ-पहेला तेमणे सुनंदा अने मुमंगला नामनी बे कन्याओ साथे विवाह करी, सांसारिक सुख भोगवी, नामांक नीतिमार्ग प्रवर्तावी, भरत बाहुबलि विगेरे पोताना सो पुत्रोने जुदुं जुदु राज्य वडेंची आपी दीक्षा ग्रहण करी. त्यार || पछी अनेक प्रकारना दुस्सह तप तपी केवलज्ञान प्राप्त कयु ॥ १७ ॥ . ततः स धर्म दर्शधोपदिश्य, प्रबोधयन् भारतभव्यसत्त्वान् । शैले सुराष्ट्राभरणेऽधिरुह्य, कचित् प्रियालुद्रुतलं सिषेव ॥ १८॥ भावार्थ-त्यार बाद प्रभु श्रीआदीवर शमादिक दस प्रकारना धर्मनो उपदेश करीने भारतवर्षना सर्वप्राणीवर्गने प्रतिबोध करता थका सौराष्ट्र ( सोरठ) देशना आभूषणतुल्य श्रीशत्रुजय पर्वतपर चढीने रायणक्षनी नीचे - ध्यानारूद थया ॥ १८॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपुण्डरीकं गणनायकं श्रीप्रभुः पुरस्कृत्यं तदैत्यवादीत्। इंद महातीर्थमनायनन्त, कालेन सङ्कोचविकोचधर्मि ॥ १९ ॥। नाभाक भावार्थ-प्रभुए ते समये श्रीपुंडरीक गणधरनी समक्ष आप्रमाणे कयु के, 'आ महातीर्थ शत्रुजयगिरि अनादि चरित्र. अनंत छे, पण ते कालक्रमे संकोच अने विस्तारने पामेछे ॥ १९ ।।। ॥॥१०॥ मूले पृथुः सम्प्रति योजनानि, पश्चाशदूर्व दश योजनानि । .... उच्चस्तथाऽष्टावथ सप्तहस्तो, भूत्वा पुनः प्राप्स्यति वृद्धिमेवम् ॥ २०॥ भावार्थ हालमां आ गिरि मूळमां पचास योजन विस्तारवाळो, उपर दस योजन विस्तारवाळो, अने उंचाइमां. आठ योजनप्रमाण छे. अने आ अवसर्पिणीमा घटतो घटतो छहा आसमां छेवटे सात हायप्रमाण, थइ पाछो उत्सर्पिणीमा विस्तारने पामशे ॥ २० ॥ शत्रुञ्जयश्रीविमलाद्रिसिद्धक्षेत्रेतिनामत्रितयं सदास्य । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - RASRAa w श्रीपुण्डरीकेत्यभिधा चतुर्थी, भविन् ! स्थितेस्तेऽथ भविष्यतीह ॥२१॥ भावार्थ-हे भव्य पुण्डरीक ! आ गिरिनां शत्रुजय, विमलाचल अने सिद्धक्षेत्र ए प्रमाणे त्रण नामे शाश्वतं || नाभाक छ, अने अत्रे तारो निवास थवाथी श्रीपुंडरीक नाम चोधे नाम प्रसिद्ध थशे ॥ २१ ॥ चरित्र. संसेव्य शत्रुञ्जयशैलमेनमनेनसः स्युननु पापिनोऽपि । ॥११॥ भुवोऽनुभावात् किलं मृत्तिकापि, : प्राप्नोति सर्वोत्तमरत्नभावम् ॥ २२ ॥ भावार्थ-आ शत्रुजयगिरि सेवन करवायी पापी पुरुषो पण पोप रहित वाय छ, खरेखर ओं पवित्र तीर्थभूमिना प्रभावथी माठी पण सर्वोत्तम रत्नपणाने प्राप्त करे छे ॥ २२ ।। ये शुद्धभावेन निभालयन्ति, .. . सव्या महातीर्थमिदं कदाचित् । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१२॥ कि श्वभ्रतियग्भवसंभवः स्याद ?, न शेषगत्योरपि जन्म तेषाम् ॥२३॥ भावार्थ-जे भव्यमाणीओ आ तीर्थर्नु कोइ पण समये निर्मळभावपूर्वक नेत्रथी दर्शन मात्र करे छे, तेओने नामाके देवगति तथा मनुष्यगतिमां पण जन्म लेवो पडतो नथी, तो पछी नरक अने तिर्यंचगतिनो तो संभव ज क्याथी चरित्र. होय ! । अर्थात् आ पवित्र तीर्यनुं भावपूर्वक दर्शन करनारा भाग्यशाली भव्य प्राणीओने चार गतिमां जन्म-मरणनी विडंबना भोमवची पडती नथी, तेओ अनंत सुखमय मोक्षमा जाय छे ।। २३ ।। श्रीमयुगादीशमुखाद् मुनीन्द्रास्तत् तन्महातीर्थफलं निशम्य । श्रीपुण्डरीकप्रमुखा निषेव्य, ततीर्थमापुः समयेऽपवर्गम् ॥ २४ ॥ भावार्थ-आ प्रमाणे श्रीमान् युगादि प्रभुना मुखथी पुंडरीक गणधर विगेरे मुनीन्द्रोए ते महातीर्थनो प्रभाव || तथा तेनी सेवायी मळता फळने सांभळी, ते शत्रुनय तीर्थ सेवन करी, पोतपोताने समये मोक्ष पाम्या ॥ २४ ॥ | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासे शिवं श्रीऋषभे सुतोऽस्य, शत्रुञ्जये श्रीभरताख्यचक्री। अतिष्ठिपद् रत्नमयीं सुवर्ण-प्रासामध्ये प्रतिमां तदीयाम् ॥२५॥ भावार्थ-श्रीऋषभदेव प्रभु मोक्ष गया बाद तेमना पुत्र श्रीभरतचक्रवर्तीए शत्रुजय तीर्थ उपर सवर्णमाना. | सादमां वे प्रभुनी रत्नमय प्रतिमा स्थापन करी ।। २५॥ योऽस्य नाम हृदि साधु वावदिः, क्लेशलेशमपि नो स सासहिः। योऽस्य वर्त्मनि मुदैव चाचलिः, संसृतौ न स कदापि पापतिः ॥२६॥ भावार्थ-जे पुरुष पोताना हृदयमा सम्यक् प्रकारे श्रीशत्रुजय तीर्थन स्मरण करे छ, तेने लेशमात्र पण दुःख सहन करवू पडतुं नथी, तेमज जे पुरुष आ तार्थना मार्गमा प्रफुल्लित चित्तयुक्त थइ गमन करे छे, ते कदापि संसारमां पडतो नथी-तेने संसारमा भ्रमण करवू पडतुं नथी. ॥२६॥ . नाऽतः परं तीर्थमिहास्ति किञ्चिद्, नातः परं वन्द्यमिहास्ति किञ्चित्।। नातः परं पूज्यमिहास्ति किञ्चिद, नातः परं ध्येयमिहास्ति किंचित् ।। २७॥ भावार्थ-आ तीर्थथी बीजु,कोइ महान् तीर्थ नथी, आ तीर्थथी बीजं कोइ पण अधिक वन्दनीय नयी, आ तीर्थथी बीजु कोइ पण विशेष पूजनीय नथी, अने आतीर्थयी वीजु कोइ पण उत्कृष्ट ध्येय-ध्यान करवा योग्य नथी.॥२७॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४|| इदमेवोक्तमन्यग्रन्थेष्वपिपश्चाशदादौ किल मूलभूमे-दशोर्वभूमेरपि विस्तरोऽस्य । उच्चत्वमष्टैव तु योजनानि, मानं वदन्तीह जिनेश्वराद्रेः॥२८॥ भावार्थ-पवित्रतीर्थ श्रीशचुंजयना परिमाण विषयमा अन्यग्रन्थोने विषे पण आ प्रमाणे उल्लेख छ श्रीऋषभदेव प्रभुना निवासालय आ गिरिनो आदिनाथ प्रभुनी वखते मूलभूमिनो विस्तार पचास योजन, ऊर्ध्वभूमिनो विस्तार दस योजन, अने आ गिरिनी उंचाइ आठ योजन हती. भागवते- दृष्ट्वा शत्रुक्षयं तीर्थ, स्पृष्ट्वा रैवतकाचलम् । स्नात्वा गज़पदे कुण्डे, पुनर्जन्म न विद्यते ॥२९॥ भावार्थ-भागवतमा पण कयु छ के-जे मनुष्य श्रीशत्रुजयगिरिनुं दर्शन करे छे, गिरनार पर्वतनो स्पर्श करे • छे, अने गज़पद कुंडमां स्नान करे छे तेने फरीथी जन्म लेवो पडतो नथी ॥ २९ ॥ नागपुराणे- अष्टषष्टिषु तीर्थेषु, यात्रया यत् फलं भवेत्। श्रीशत्रुजयर्थेिश-दर्शनादपि तत्फलम् ॥ ३० ॥ भावार्थ-नागपुराणमां को छे के-अडसठ तीर्थोने विषे यात्रा करवायी जे फळ प्राप्त थाय, तेटलं फळ ।। - Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५/ मात्र एक तीर्थाधिपति श्रीशत्रुजयतीर्थनां दर्शन करवाथी प्राप्त थाय है. ॥ ३०॥ तीर्थमालास्तवे- अतो धराधीश्वर ! भारती भुवं, तथाऽधिगम्योत्तममानुषं भवम् । . युगादिदेवस्य विशिष्टयात्रया, विवेकिना ग्राह्यमिदं फलं श्रियाः॥३१॥ भावार्थ-तीर्थमाला स्तवमा पण कड्यु छ के–माटे हे भूपति ! आ भारतभूमि तेमज उत्तम मनुश्यजन्म पामीने, युगादिदेव श्रीआदिनाथनी विशिष्ट प्रकारनी यात्रा करीने विवेकी पुरुषोए पोताने प्राप्त थयेळी लक्ष्मीनुं फळ ग्रहण करवू. ॥ ३१॥ एवं श्रुत्वा नरेशोऽपि, तीर्थमाहात्म्यमदभुतम् । विसृज्य श्रेष्ठिनं यात्रा-निमित्तं लग्नमग्रहीत् ॥३२॥ भावार्थ-आ प्रमाणे श्रीशत्रुनय तीर्थनो अद्भुत प्रभाव सांभळीने नाभाक राजाए ते धनान्य शेठने विसर्जन करी, श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्राने माटे उत्तम लग्न-मुहूर्त जोवडाव्यु.॥ ३२॥ लग्नक्षणे व्यतिक्रान्ते, ब्रह्मद्वारव्यथावशात् । पश्चात्तापं दधदू भूपो, द्वितीयं लग्नमग्रहीत् ॥ ३३॥ भावार्थ-पण ज्यारे मुहूर्तनो दिवस आन्यो त्यारे कर्मयोगे मस्तकमां ब्रह्मद्वारने विषे असा पीडा थवायी | Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तेनापी जर शकायुं नहीं, तेथी पश्चाचाप करता रानाए ज्योतिषी पासे बीजु मुहूर्त कहाव्यं ॥३३॥ आकस्मिकसमुद्भूत-ज्येष्ठपुत्रव्यथावशात् । .. तस्मिन्नपि गते लग्ने, तृतीयं लग्नमादे ॥ ३४ ॥ भावार्थ-ते बीजी वखते जोवडावेला मुहूर्तनो दिवस आवतां पोताना मोटा पुत्रने अकस्मात् व्यथा उत्पन्न च. यवाची वे बीजु मुहूर्त पण गपुं. त्यारे राजाए ज्योतिषीभो पासे त्रीजुं मुहूर्त कढान्यु.॥ ३४ ॥ १६॥ पदेवीमहाकष्टा-जातस्तस्याऽप्यतिक्रमः। .. स्वचक्रशङ्कया लग्न-मत्यगात् तुर्यमप्यथ ॥ ३५॥ भावार्थ-ते त्रीजी वखत जोरहावेला मुहूर्ननो दिवस आवनां पोतानी पटराणीने अकस्मात् महाव्याधि उत्पन्न वायी ते दिवसे पण राजा नीकळी शक्यो नहीं. त्यारे फरीथी चोथी वखत नाभाक राजाए मुहूर्त जोवडा ते मुहूर्त आवतां पोताना सैन्यमां तथा देशयां बखेडो जागवानी शंकाथी ते वखते पण राजा श्रीशजय तीर्थनी यात्रा करवा माटे नीकळी शक्यो नहीं, अने चोथु मुहूर्त पण व्यतीत थइ गयें ॥ ३५ ॥ अहो ! पापी ममात्मेपि, निन्दन स्वं पञ्चमं नृपः। मुहूर्तमाददे तच्च, परचक्रभयाद् गतम् ॥ ३६॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. च. १७ आ भावार्थ - प्रमाणे श्रीशत्रुंजय तीर्थनी यात्रा निमित्ते जोडावेळा चारे मुहूर्ती निष्फळ जवाथी, 'अरे ! मारो आत्मा महापापी छे के जेथी पवित्रतीर्थ श्री शत्रुंजयनी यात्रा करवा जतां आवी रीते विघ्नो आव्या ज करे छे' एप्रमाणे पोताना आत्मानी निंदा करता थका राजाए पांच मुहूर्त कढाव्युं. पण कर्मसंयोगे ते मुहूर्तं पण पोताना देश उपर बीजा राजाओना सैम्यो चडी आववाना भयथी बीती गयुं. ॥ ३६ ॥ एवं भूपो व्यतिक्रान्ते, यात्राया लग्नपञ्चके । हेतुमस्य कथं ज्ञास्या - मीति चिन्तातुरोऽभवत् ॥ ३७ ॥ भावार्थ- --आ प्रमाने श्रीशत्रुंजय तीर्थनी यात्रा करवा माटे ज्योतिषीओ पासे कढावेळा पांचे मुहूर्तो व्यतीत outet 'आवी रीते विघ्नो आववानुं कारण हुं केबी रीते जाणीस १" ए प्रमाणे राजा चिंतातुर थयो. ॥ ३७ ॥ तावतोयानमायाताः, श्रीयुगन्धरसूरयः । इति विज्ञपयास, भूपालं वनपालकः ॥ ३८ ॥ भावार्थ - एक विचार करे छे, तेटलामां बनपालके आवी राजाने वधामणी आपी के उद्यानवां श्रीयुगंधर सूरि समबसर्वा 'छे. ॥ ३८ ॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. च. |१८| ततो गतो वनं राजा, चतुर्ज्ञान निर्धान् गुरून् । ज्ञात्वा नत्वाऽन्तरायाणां, हेतून् पप्रच्छ भक्तिभाक् ।। ३९ ।। भावार्थ---त्यार बाद राजा पोताना कुटुंब परिवार सहित अत्यंत भक्तिवढे उल्लसित चित्तवान् थइ उद्यानमां गयो, त्यों जइ गुरुमहाराजने विधिपूर्वक वंदन करी तेमने चार ज्ञानना निधि जाणी पोताना अंतरायनुं कारण पूछयुं ॥ ३९ ॥ गुरवो मनसा सीम-न्धरस्वामिजिनं ततः । नत्वाऽप्राक्षुरथ स्वाम्य- प्यूचे तन्मनसाऽखिलम् ॥ ४१ ॥ भावार्थ --त्यार पछी गुरुमहाराजे मन वडे श्रीसीमंधर जिनेन्द्रने नमीने पूछयुं, त्यारे श्री सीमंधरस्वामीए मनयी सर्व धान्त निवेदन क. ॥ ४० ॥ मनः पर्यायतो ज्ञानात्, श्रीयुगन्धरसूरयः । सम्यग् विज्ञाय वृत्तान्तं तं जगुर्भूपतिं प्रति ॥ ४१ ॥ भावार्थ - श्री युगन्धराचार्ये मनःपर्यायज्ञानथी सर्व वृत्तान्त सम्यक प्रकारे जाणीने राजाने जणान्युं के ॥ ४१ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजन् ! सुखेषु दुःखेषु, मुख्यं कर्मैव कारणम् । तच्चार्जितं त्वया पूर्व, यथा मूलात् तथा शृणु ॥ ४२ ॥ भावार्थ-हे राजन् ! मुख अने दुःख ए चने प्रसंगोमा दरेक प्राणीने मुख्य कारण कर्मज छे. अने ते. कर्म पूर्वभवपां तें जे उपार्जन कर्यु छे ते बीना तुं अथथी इति पर्यंत सांभळ. ॥ ४२ ॥ ना. ।१९। नाभाकराजाना पूर्वभवर्नु वृत्तान्त. एकोनविंशत्यम्भोधि.कोटाकोटिप्रमाणतः। कालात् परमतीतायां, चतुःसंयुतविंशतो ।। ४३ ॥ जम्बुद्वीपस्य भरते, सम्प्रतिस्वामिवारके। उपाम्भोधि तामलिप्ती-नगर्या भ्रातरावुभौ ॥४४॥ समुद्-सिंहौ ज्येष्ठस्तु, निर्मलः पुण्यवानृजुः । विपर्यस्तः कनिष्ठश्च, बदरीकण्टकाविव ॥ ५५ ॥ . त्रिभिर्विशेषकम् ॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. च. |२०| भावार्थ – ओगणीश कोटाकोडी सागरोपम काल पहेला, अतीतचम्बीशीयां जम्बूद्वीपना भरत क्षेत्रने विषे 'संप्रतिस्वामी नामना तीर्थकरना वारामों, समुद्रतट समीपे तामलिप्ती नगरीमां समुद्र अने सिंह नामना वे भाइ रहेता हता. तेओमां मोटो भाइ समुद्र निर्मल चरित्रवाळो पुण्यवान् अने सरलहृदयी हतो, पण नानो भाइ दुष्ट आचरणवाळो महापापी अने क्रूरहृदयी हतो. जेम बोरडीना कांटाओ पैकी कोइ वक्र अने कोइ सीधो होय छे, तेष आ बने भाइओमा मोटो भाइ सरळ इतो, अने नानो भाइ वक्र हतो. ॥ ४३-४४-४५ ॥ भुवं खनद्द्भ्यां ताभ्यां स्व-गृहे स्थूणार्थमन्यदा । चतुर्विंशतिदीनार - सहस्रनिधिराज्यत ॥ ४६ ॥ भावार्थ-ते बनेर एक दिवस पोताना घरनी अंदर थांबलो नाखवा माटे पृथ्वी खोदतां चोवीस हजार सोनामहोरी भरेको निधि प्राप्त कर्यो. ॥ ४६ ॥ देवद्रव्यमिदं नाग- गोष्ठिकेन निधीकृतम् । इत्युक्तिगर्भ पत्रं च, ज्येष्ठो दृष्ट्वेत्यभाषत ॥ ४७ ॥ भावार्थ- - तथा तेनी साथे एक पत्र नीकळ्यो. तेमां एवा भावार्यनुं लख्युं हतुं के – 'आ देवद्रव्य नाग१ अतीत चोवीशांमां चोवीशमा तीर्थंकर । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नापना कुटुंबीए निधि तरीके दाटयु छे.' आ प्रमाणे लखेलो पत्र वांचीने ज्येष्ठ भ्राता समुद्रे पोतानो अभिपाय जाहेर || कर्यो के-॥४७॥ गत्वा शत्रुञ्जये नाग-श्रेयसे दीयते ह्यदः । ना. श्रुत्वेति जायया नुन्नः, कनीयानित्यवोचत ॥ ४८ ॥ . भावार्थ-शत्रुजयमा जइने नागगोष्टिकना पुण्यने माटे आ नीकळेळ देवद्रव्य आपीए'। ए प्रमाणे मोग २४ भाइर्नु वचन सांभळी पोतानी स्वीपी प्रेरायेलो नानो भाइ सिंह बोल्यो के-॥४८॥ कन्या वराहीं जाताऽसौ, परं नोवाहिता पुरा।। धनं विनाऽथ तत्प्राप्तौ, सोत्सवेन विवाह्यते ॥ ४९ ॥ भावार्थ- 'आ कन्या वरने योग्य थइ के, परंतु अत्यार सुधी धन बिना तेनुं लग्न कर्यु नथी, पण हवे धननी प्राप्ति यवाथी तेनो महोत्सवपूर्वक विवाह करीए' ॥४९॥ . ध्यौ समुद्रः श्रुत्वेति, स्वभावाद् दुष्टधीरसौ । भार्यया प्रेरितो जातो, वात्येरितकृशानुवत् ॥५०॥ || भावार्थ-भाई नाना भाइर्नु अयोग्य कथन सांभळी समुद्रे विचार कर्यो के-आ स्वभायथीन दुष्ट घुदियालो || Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | छे, अने हमणां वळी स्त्रीनी प्रेरणाथी जेम पवनना मुसवाटथी अग्निनी द्धि थाय तेम आनी पण दुष्टबुद्धि अधिक । वृद्धि पामी छे. खरेखर दुनियामा स्त्रीओए महान् महर्षिोने पण पोताना मनोहर तीव्र कटाक्ष तेमज वाग्वाणोथी पोताने वश करी कीधा छे, तो पछी आना जेवो एक सामान्य मनुष्य तेनी आगळ | करी शके १ ॥५०॥ सुवंशजोऽप्यकृत्यानि, कुरुते प्रेरितः स्त्रिया। स्नेहलं दधि मध्नाति, पश्य मन्थानको न किम् ? ॥ ५१ ॥ ।२२|| भावार्थ-उच्च कुळमां जन्म पामेल पुरुष पण स्त्री वडे प्रेरायेलो नहिं आचरवा योग्य अकृत्यनु आचरण करे छे, कारण के, मुवंशथी थयेलो-सारा वांसथी बनेलो रवैयो स्त्री वडे प्रेरायेलो छतो शुं स्नेहवाला-चिकाशदार दहीजें मथन करतो नथी ? अर्थात् करेज छे. ॥ ५१ ॥ देवद्रव्योपभोगेन, घोरां यास्यति दुर्गतिम्। ततो बन्धुरयं बन्धु-रया बोध्यो गिरा मया ॥ ५२॥ भावार्थ-आ मारो भाइ जो स्त्रीना कथन मुजब देवद्रव्यनो उपभोग करशे, तो अत्यंत भयंकर नरकादि || दुर्गतिमां जशे, माटे आने मारे मृदु अने श्रेष्ट वाणीथी प्रतिबोध करवो जोइए. ॥ ५२ ।। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. च. |२३| . निश्चित्येत्यवदद् भ्रातः !, पातकात् श्वभ्रपातुकात् । न किं बिभेषि यद्देव-- द्रव्यभोगमपच्छासे १ ॥ ५३ ॥ भावार्थ - एम निश्चय करीने नाना भाइने कथं के-बन्धु ! नरकादि भयंकर गतिमां पाडनार पापथी शुं तुं डरतो मथी ? के जेथी देवद्रव्यना पण उपभोगनी इच्छा करे छे. ॥ ५३ ॥ देवद्रव्येण यत्सौख्यं यत्सौख्यं परदारतः । अनन्तानन्तदुःखाय, तत्सौख्यं जायते ध्रुवम् ॥ ५४ ॥ भावार्थ – जे मनुष्य देवद्रव्यना उपभोग बड़े तेपज परखी सेवन द्वारा जे मननुं मानी लील सुख मेळवे छे, ते सुख निःशंक अनंतानंत दुःख प्राप्त करावनार थाय छे. ॥ ५४ ॥ जैन सिद्धान्तमां पण कधुं छे. के -- " apra विणासे, रिसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजयच उत्थभंगे, मूलग्गी बोहिलाभस्स " ॥ ५५ ॥ भावार्थ -- चैत्यना द्रव्यनो विनाश करवाथी, ऋषिनो घात करवाथी, शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा करवाथी, तेमज संयतिना चतुर्थव्रतनो भंग करवाथी, सम्यक्त्वना मूलमाज अग्नि पडे छे; अर्थात् सम्यक्त्व नाश पामे छे. ॥ ५५ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरं सेवा वरं दास्य, वरं भिक्षा वरं मृतिः । निदानं दीर्घदुःखानां, न तु देवस्वभक्षणम् ॥५६॥ ना. भावार्थ--कोइनी सेवा करी आजीविका चलावी श्रेष्ठ छ, चाकर थइने रहे सारं छे, भीक्षा मागी उदर पोषण कर, उत्तप छ, अने छेवटे भूख्या मरी जवू पडे तो ते पण व्हेतर छे; पण सर्व प्रकारना दुःखोनुं कारण, देवद्रव्यनुं भक्षण करवं ते बीलकुल ठीक नयी ॥५६॥ २४॥ भ्रातुरित्युपदेशेन, मौनी सिंहस्तदोस्थितः। एकान्ते भार्ययाऽभाणि, हा! मोरध्याद वंच्यसे कथम् ॥५७॥ कपोलकल्पितैर्यबा, को नाम न हि पंच्यते। परं यथा तथा सर्व-मध वाऽऽदत्स्व तन्निधिम् ॥५८॥ .. भावार्थ--आ प्रमाणे भाइनो उपदेश सांभळी मौन रहेलो सिंह त्यांथी उठ्यो, तेने एकांतपा तेनी पत्नीए कर्बु के-“तमे भोळपणथी केम ठगाओ छो ? अथवा कपोलकल्पित वातोयी कयो पुरुष न ठगाय ? परंतु जेमतेम करीने || सर्व निधि आपणे ताबे करो, अथवा संपूर्ण निधि न आपे तो, छेवटे अरधुं धन पण तमे ग्रहण करो "॥ ५७-५८॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं भार्येरितः सिंहो, लङ्घनत्रितयं व्यधात् । ___ अहं पृथग् भविष्यामी-त्युवाच स्वजनानपि ॥ ५९॥ ___ भावार्थ-ए प्रमाणे भार्याना समजाववाथी प्रेरायेला सिंहे त्रण दिवस लांघण करी, अने पोताना सगांना. !! संबंधीओने कधुके, हुं जुदो यइश ॥ ५९॥ तेषां बलेन वेश्माध, निधानाधं च सोऽग्रहीत् । ॥२५॥ समुद्रस्तु ततः शत्रु-जययात्राचिकीरभूत् ॥ ६०॥ भावार्थ-सगां-संबंधीओनी लागवग पहोंचाही तेओना बळ वडे सिंहे समुद्र पासेथी घर अने निधाननो अरषो भाग ग्रहण कर्यो. त्यार पछी समुद्रे श्रीशत्रुजयतीर्थनी यात्रा करवानो अभिलाष कर्यो. ॥ ६ ॥ निधानार्थ व्यये तीर्थे, नागपुण्यार्थमित्यसौ।। यावच्चलति सिंहेन, तावद्राज्ञे निवेदितम् ॥ ६१ ॥ लेभे निधानं मात्रा, यात्राव्याजादसौ ततः। तदादाय व्रजन्नास्ति, न दोषोऽथ मनाग मम ॥ ६२ ॥ भावार्थ-'श्री शत्रुजय तीर्थमा जइ, आ बाकी रहेला निधानमांना द्रव्यनो नागश्रेष्ठीना पुण्यने माठे व्यय करतो ।। AMERICUIREMIER Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥२६॥ || छे' एम विचार करी समुद्र तीर्थयात्रा करवा माटे चालवानी तैयारी करतो हतो; तेवापां सिंहे ते नगरना राजानी || आगळ जइने निवेदन कर्यु के-'मारा मोटा भाइ समुद्रे दाटेलं निधान मेळव्युं छे, ते निधानने लइने तीर्थयात्रार्नु वहानुं करी अहींथी हमणांज जाय छे में मारी फरज समजी आपने जाहेर कर्यु छे, हवे कदाच निधान लइने चाल्यो जाय दो तेमांमारो दोष नथी।। ६१-६२॥ मुहूर्तक्षण एवाऽथ, राज्ञाऽऽहूय नियन्त्रितः। समुद्रः कारणं ज्ञात्वा, निधानाधं पुरोऽमुचत् ॥ ६३ ॥ भावार्थ-सिंहना भंभेरवार्थी कुपितं ययेला राजाए समुद्रने मुहूर्त क्षणमांज बोलावी नियंत्रित कर्यो। पोताने अकस्मात् नियंत्रित करवानुं कारण जाणीने समुद्रे अर्धनिधान राजानी आगळ मूक्युः ॥ ६३ ।। सर्व स्वरूपं चावेद्य, निधिपत्रमदर्शयत् । यथावस्थितवक्तेति, समुद्रं मुमुचे नृपः ॥ ६४ ।। . भावार्थ-तेमज निधान नीकळवा बाबतनी सर्व वात राजाने कहीने भूमिमाथी नीकळेल निधिपत्र बताव्यो। सत्यवादी समुद्रना वचन उपर राजाने संपूर्ण विश्वास बेठो, अने आ सत्य बोलनार के एम धारीने छोडी || मूक्यो ।। ६४ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. २७ देवद्रव्यं च तज्ज्ञात्वा, प्रत्यर्थन्यायधर्मवित् । समुद्रं बहु सत्कृत्य, यात्रार्थ व्यसृजन्नृपः ॥ ६५ ॥ भावार्थ-तथा 'आ देवगन्ध छ' एम जाणी श्रेष्ठनाति पाळनार अने धर्मनो जाता एवा राजाए समुद्रनो घणोन | सत्कार करीने तीर्ववांना माटे विमर्जन कर्यो । ६५ ॥ . अथ द्विगुणितोत्साहः, समुद्रः स्वकुटुम्बयुक् ।। मुहूर्तान्तरमादाय, यात्रार्थ प्रास्थित द्रुतम् ॥ ६६ ॥ भावार्थ-मा प्रमाणे राजानुं सन्मान पामवाथी बमणो उत्साहित थयेला समुद्रे निमित्तिया पासे वीर्यु उत्तम मुहूर्त कदापी पोताना कुटुंब सहित यात्राने माटे शीघ्र प्रयाण कयु ॥ ६६ ॥ . चतुर्भिर्योजनैराक्, श्रीशत्रुञ्जयतीर्थतः। यावद् मुक्ते-सरस्तीरे, श्रीकाश्चनपुरे पुरे ॥ ६७॥ लत्राऽपुत्रे मृते भूपे, तावद् मन्त्राऽधिवासितैः ।। आगत्य पञ्चभिर्दिव्यै, राज्यं तस्मै ददे मुदा ॥ ६८ ॥ युग्मम् । भावार्थ-श्रीशत्रुजय तीर्थयी चार योजन दूर श्रीकांचनपुर नामना नगरनी नजीकना सरोवरने कांठे जे || ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. च. १२८| वामां भोजन करे छे तेवामां, ते नगरपां पुत्र रहित राजा मरण पामवाथी मंत्र बढे अधिवासित थयेला पांच दिव्योप त्यां आषी तेने हर्षसहित राज्य अर्पण कर्ये ।। ६७-६८ ॥ गजारूढः सितच्छत्र-शाली चामरवीजितः । अन्वीयमानः पूर्लोकैः स्तूयमानः कवीश्वरैः ॥ ६९ ॥ चतुरङ्गचमूचार-विचित्राऽखिल सत्पथः । राज्यसूर्यध्वानपूर्य - माणब्रह्माण्डमण्डपः ॥ ७० ॥ विलसतोरणं प्रोच्चपताकं प्रेक्ष्यनाटकम् | वर्णाम्भः सिक्तभूपठि -- व्यक्तस्वस्तिकसङ्कुलम् ॥ ७१ ॥ विचित्रोल्लोचसम्पूर्णा --ऽऽपण श्रेणिविराजितम् । समुद्रप्रालभूपालः, सोत्सवं प्राविशत् पुरम् ॥ ७२ ॥ चतुर्भिः कलापकम् । भावार्थ - तदनंतर श्रेष्ठ हस्तीवर आरुढ थयेल, श्वेत छत्रे करीने शोभायमान, चामरो बढे वींजाता, जेनी पाछळ नगरना प्रतिष्ठित लोको चाली रहेला छे. कवीश्वरो वडे स्तुति कराता, ॥ ६९ ॥ चतुरंगी सेनानी मंद मंद मनोहर गतिथी विचित्र करेलो के समग्र सुंदर मार्ग जेणे, अने राज्यना बाजींजोना मधुरा निर्घोषथी पूरी दीघो छे ब्रह्मांड J Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपी मंडप जेणे एवा समुद्रपाल राजाए ७॥ विविध रंगना तोरणोए करी रमणीय, गगन मंडलमा फरकी रहेली उच्च पताकाओ युक्त, दर्शनीय मनोहर नाटको सहित, अनेक रंगना सुगंधी जलथी सिंचाती पृथ्वीपीठिका उपर स्पष्ट जणाता साथीयाओथी व्याप्त ॥ ७१ ॥ जेनी अंदर रंगबेरंगी विविध प्रकारना किंमती चंदरवा लगावी दीपा छे एवी मालथी भरपूर बनेली दुकानोनी पंक्तियी शोभी रहेल श्रीकांचनपुर नगरमा प्रवेश कर्यो ॥६९ यी ७२॥ राज्यकार्याणि कृत्वाऽह-स्त्रितयेन स सैन्ययुक् । ।२९ ऋद्धया महत्याऽध्यारोहत्, श्रीशत्रुञ्जयपर्वतम् ॥७३॥ ___भावार्थ-त्रण दिवसमां तमाम राज्यकार्य आटोपी, ते समुद्रपाल राजा पोताना सैन्ययुक्त मोटी ऋदि सहित तीर्थाधिराज श्रीशत्रुञ्जय पर्वतपर चड्यो ॥ ७३ ।। स्नानादिसप्तदशभि-भैदैः सिद्धान्तभाषितैः। स तत्र सूत्रयामास, पूजामादिजिनेशितुः ॥ ७४ ॥ भावार्थ-ते पर्वत उपर विराजमान प्रभुश्री आदीश्वर जिनेन्द्रनी सिद्धांता मरूपेली स्नात्र विगैरे सत्तरभेदे || पूजा करी ॥ ७४ ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. महापूजा-ध्वजारोपा-दिषु कृत्येष्वसौ तथा। ददौ दानं यथा झ्यामो, जज्ञे मेघोऽपि लज्जया ॥७५ ॥ भावार्थ-समुद्रपाल राजाए ते शत्रुजयगिरि उपर महापूजाओ ध्वजारोपण विगेरे पवित्र कार्योमा एटलं तो पुष्कळ दान आप्यु के जे दान जोइने दृष्टिदान करतो मेघ पण लज्जा वडे श्याम. यइ गयो, अर्थात् अखूट दृष्टिदान करतो मेघ पण आ राजाना दान आगळ पोताने तुच्छ मानतो यको लज्जा पामी श्याम यइ गयो ॥ ७५॥ विधायाऽष्टाह्निकां नाग-नामग्राहं जगत्पतेः। पूजा-दानादिसत्कृत्यैः, स.निधानाधभव्ययत् ॥ ७६ ॥ भावार्थ-नागभेष्ठी नाम ग्रहण करी श्रीजिनेन्द्रनो आठ दिवस अहाइ महोत्सव करी, पूजा दान विगेरे सुकृत्यो करवामां ते नागश्रेष्ठीना निधाननो बचेलो अरपो भाग समुद्रपाल राजाए वापर्यो ॥ ७६ ॥ सिद्धक्षेत्रादयोत्तीर्य, स्वपुरं प्राविशन्तृपः । रुद्धो राज्याऽसहिष्णुत्वाद्, वाणिजो दुष्टपार्थिवैः ॥ ७७॥ भावार्थ-हवे समुद्रपाल सिदक्षेत्रयी उतरीने जेवामा पोताना नगरमा प्रवेश करतो हतो, तेवामां ते वैश्य होवाथी तेने मळेला राज्य ने सहन नहीं करनारा आसपासना इाल दुष्ट राजाओए घेरी लीधो ॥ ७७॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथः प्रवृत्ते युद्धेऽथ, भग्नां वीक्ष्य निजां चमूम् । श्रीसमुद्रन्पो यावत्, किंकर्तव्यजडोऽजनि ।। ७८ ॥ भावार्थ-परस्पर बने सैन्यनुं युद्ध प्रवत्यु, पण छेवटपां दुश्मनोना पराक्रमथी पोतानी सेनाने वीखराइ गयेली जोइ समुद्रपाल राजा 'हने हुं करवू ?' ए प्रपाणे जेटलामां विचारवमळमां पंचवायो ॥ ७८ ॥ तावन्निविडबन्धेन, निवान् योजिताञ्जलीन् । ॥३१॥ पादाने लुठतो वीक्ष्य, रक्ष रक्षेति जल्पतः ॥ ७९ ॥ 'भावार्थ-तेटलामां मजबूत बंधनोथी बंधाएला अने के हाथ जोडी पगमा माळोटता शत्रुराजाओने पोतानी सन्मुख रक्षण करो रक्षण करो' ए प्रमाणे बोलता.जोइने ॥ ७९ ॥ विवेषिभूपतीन् सर्वान् , प्रोन्मुच्य निजपूरुषैः । अहो ! किमिति सार्यो- पृच्छत्तानेव भूपतीन् ॥ ८ ॥ 'भावार्थ-पोताना उपर देष करनार अने युद्ध करनार ते सर्व शत्रुराजाओने पोताना माणसो द्वारा छोडावीने ॥ 'अहो ! आशु आश्रर्य कन्युं " ए प्रमाणे ते राजाओगे पूछयु ।। ८०॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा. च. |३२| ते प्रोचुर्नाऽपरं विद्मो, विशेषं किन्तु सङ्गरे । अबध्यामहि दुर्बुद्धी, युध्यमानाः स्वयं वयम् ॥ ८१ ॥ भावार्थ-त्यारे सर्व राजाओए प्रत्युत्तर आप्यो के — अमे आम बनवानुं बीजुं तो कांइ विशेष कारण जाणता नथी, परंतु दुष्टबुद्धिथी युद्ध करता अग्रे रणांगणमा स्वयमेव बंधाई गया छीए ॥ ८१ ॥ परं भवत्प्रसादेन, च्छुटिता नात्र संशयः । अतः स्वस्सेवकान् यावज्जीवं स्वीकुरु नोऽधुना ॥ ८२ ॥ भावार्थ- परंतु हे राजन् ! आपनीज कॅपाद्रष्टिथी अमे छुच्या छीए, एमां संशय नथी. माटे हवे आप अमो सर्वने जीवंत पर्यंत पोताना सवकपणे स्वीकारो ॥ ८२ ॥ इत्युक्त्वा सेवकीभूतैस्तैरेव । ऽसौ परिवृतः । स्वपुरं प्राविशत् प्राज्य-: - प्रवेशोत्सव पूर्वकम् ॥ ८३ ॥ भावार्थ -- आवी रीते सेवक तरीके पोताने वश थयेल सर्व राजाओथी परिवरेल ते समुद्रपाल राजाए मोटा उत्सवयुक्त पोताना नगरमां प्रवेश कर्यो ।। ८३ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना.. च. |३३| सभ्यान् सभायामाभाष्य, विसृज्य च नृपानसौ । सौधान्तः पूजयन् देवान् ददर्श व्यन्तरं पुरः ॥ ८४ ॥ भावार्थ ये --त्यार बाद कचेरीमां सभ्यो साथै केटळीक बातचीत करी, राजाओने सम्मानपूर्वक विसर्जन करी, पोताना गृहमंदिरमां देवोने पूजे छे तेवामां पोतानी सन्मुख एक व्यंतर जोयो ॥ ८४ ॥ - पृष्टः कस्त्वमिति क्षोणि-भृता स व्यन्तरोऽवदत् । तामलिप्त्यामहं नाग-नामा प्राग् गोष्ठिकोऽभवम् ॥ ८५ ॥ भावार्थ- समुद्रपाल राजाए पूछयुं के— 'तुं कोण छे ?' । त्यारे ते व्यंतरदेवे कसुं के हुं तामलिप्ति नगरीफां प्रथम नाग नामनो गोष्ठिक हतो ॥ ८५ ॥ पूर्वजैः कारिते चैत्ये, सारां विदधतो मम । कुटुम्ब सकलं क्षीणं, देवस्वेनैव पोषितम् । ८६ ॥ भावार्थ- मारा पूर्वजोए बंधावेळा जिनमंदिरनी सार संभाळ करतां देवद्रव्ययीज पोषण पामेलं मारुं सघ ँ कुटुंब नाश पाम्युं ॥ ८६ ॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ना. ३४॥ देवद्रव्योपभोगेन, कुटुम्बस्य क्षयो भवेत् । नैमित्तिकादिति श्रुत्वा, भीतः कर्म तदत्यजम् ॥ ८७॥ भावार्थ-हवे कोइक समये निमित्तियाना मुखयी सांभळ्यु के- 'देवदव्यनो उपभोग करवायी कुटुंबनो नाश याय छे' आ प्रमाणे सांभळी हूं डर पाम्यो, अने तेथी में वे कार्य-देवद्रव्यनो उपभोग करवो छोडी दीपो. ।।८७॥ चतुर्विशतिदीनार-सहस्री यान्तिकेऽभवत् । देवसत्काऽवशिष्टा सा, क्षितौ क्षिप्ताऽथ पत्रयुक् ॥ ८८ ।। भावार्थ-मारी पासे देवद्रव्य तरीकेनी चोवीश हजार सोनमहोरो जे बाकी रही हती, ते लेखित पत्र सहित पृथ्वीमा दाटी. ॥ ८८॥ कृत्यैर्यथोचितैर्जीवन् , प्रान्तेऽहं कष्टतो निशि। स्थविर्या प्रातिवेश्मिक्या, पठयमानं मृदुस्वरम् ॥ ८९॥ श्रीशत्रुञ्जयमाहात्म्यं, शृण्वन्नेकाग्रमानसः। : मृत्वा तयानतोऽभूवं, व्यन्तरोऽौव पर्वते ॥ ९०॥ युग्मम् । भावार्थ-त्यार पछी यथायोग्य कार्यो वढे धन मेळची आजीविका चलावतो हुं मरण समये दुःखपूर्वक रात्रिमा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च. नजीकना पाडोशमा रहेती एक घरडी डोशीना मुखद्वारा कोमल स्वरथी कहेवाता श्रीशत्रुजय तीर्यना अद्भुत माहात्म्यने एकाग्रचित्ते सांभळतो छतो मृत्यु पाम्यो, अने श्रीशर्बुजयना ध्यानथी आज पर्वतने विषे व्यंतर देव ययो कुं. ॥ ८९ ९०॥ .. . तत्र पूजाक्षणे स्वीयं, नाम श्रुत्वा भवन्मुखात्। स्मृत्वा च पूर्ववृत्तान्तं, प्रतिचेता व्यचिन्तयम् ॥ ९१ ॥ भावार्थ-आ पर्वतने विषे पूजा समये तमारा मुखथी मारुं नाम सांभळीने पूर्वभवनो हत्चान्त स्मरण करी मारं चित्त घणुं प्रसन्न पयुं, अने में विचार्यु के-॥ ९१.॥ साध्विदं विदधे देव-द्रव्यं यद्देवपूजने । व्ययितं तत् किमप्यस्य, सान्निध्यं विधेऽधुना ॥९॥ भावार्थ-आ राजाए देवपूनामां देवद्वन्यनो व्यय कर्यो ते घणुन सारं कर्य, माटे एने हवे कारक सहायकारी थाउं॥९२।। अतः सहागतेनैव, यन्त्रितास्ते मयाऽरयः। अल्पशक्तिः परं नाऽह--मन्यत्र स्थातुमीश्वरः ॥९३ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. १३६॥ भावार्थ - एम विचार करी श्रीशभुंजय तीर्थथी साधे आवेला में तमारा शत्रुओने दृढ बंधनोथी यांची लीपा इता. परंतु हुं अल्पशक्तिवाळो लुं, तेथी मारा स्थान सिवाय अन्य स्थाने रहेवा समर्थ नथी ॥ ९३ ॥ अतो याताऽस्मि तत्रैव, परं यात्राद्वयस्य मे । प्रत्यन्दं सुकृतं देयं प्रपेदे सोऽपि तद्वचः ॥ ९४ ॥ भावार्थ-माटे हुं मारा स्थानके जाउं कुं. पण छेवटमां मारे तमोने एटलुं जणाववानुं के, तमारे दर वर्षे मारा निमित्ते ने यात्रानुं पुण्य देकुं आ प्रमाणे ज्यारे व्यंतर देवे पोतानो समस्त व्यतिकर राजाने स्पष्ट कही बतान्यो, भने छेटनी के याजाना पुण्यनी मागणी करी त्यारे राजाए पण तेनुं वचन मान्य कर्यु ।। ९४ ।। यस्तु दीयते चेत्तत् सहस्रगुणमाम्यते । यतः तहन्ते सुकृते पुण्यं पापे पापं च तद्गुणम् ॥ ९५ ॥ भावार्थ - जे वस्तु दान तरीके आपवामां आवे छे, तेथी हजारगणी प्राप्त थाय छे. बळी जे सुकृतने विषे 'अपाय छे ते पुण्य आपे छे, अने जे पाप आरंभकारी कार्यमा अपाय छे ते तेटलाज गणुं पाप आपे छे. ॥ ९५ ॥ दीयमानं धनं किञ्च, धनिकस्याऽपचीयते । सुकृतं दीयमानं तु, धनिकस्योपचीयते ॥ ९६ ॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____भावार्थ-वळी धनिकपुरुषतुं दान करातुं धन तो ओर्छ थाय छे, पण दान करातुं सुकृत तो धनिकने || वृद्धिज पामे छे-सुकृतनुं जेम जेम दान करीए तेम तेम घटवाने बदले ते वधतुं ज जाय छे ॥ ९६ ॥ श्राव्यते सुकृतं यावद्, योऽन्तकालेऽपि तावतः। निजश्रद्धानुमानेन, स तदैवाऽश्नुते फलम् ॥ ९७ ॥ . . भावार्थ-जे माणसने अंत वखते पण जेटलुं सुकृत संभळावाय छे ते. मनुष्य पोतानी श्रद्धाना अनुमाने करीने वेटला मुकृतना फळने तेज वखते प्राप्त करे छे ॥ ९७॥ ततः श्रावयिता पश्चाद्, विधत्ते मानितं यदि। तदा सोऽप्यनृणः पुण्य-भाग भवेदन्यथा न तु ॥ ९८ ॥ ' भावार्थ-त्यार पछी सुकृत संभळावनार जो मानेलं मुकृत पाछळथी करे तो ते माणस पोताना देवामाथी छूटे छे, अने पोते पण पुण्यनो भागी बने छे, पण जो न करे तो तेथी विपरीत फळ पामे छे ॥ ९८ ॥ अश्रावितोऽपि अद्धत्ते, सुकृतं यः क्वचिद्गती। जानन ज्ञानादिभावेन, सोऽपि तत्पलमाप्नुयात् ॥ ९९ ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - जे प्राणीने सुकृत संभळाव्यं न होय, तो पण जो ते स्वयमेत्र सुकृतवी श्रद्धा करे, भने पछी कोइ पण गतिमां ज्ञानादि भावधी जाणे तो ते पण ते सुकृतनुं फळ प्राप्त करे छे ।। ९९ ।। अन्यथा सुकृतं तन्वन् स्वजनः स्वजनाख्यया । व्यवहारप्रीतिभक्ती -रेव ज्ञापयति ध्रुवम् ॥ १०० ॥ भावार्थ - जे कुटुंबीए पोताना कुटुंबीना अंतकाळे जे सुकृत संभळाच्युं न होय ते सुकृत पाछळथी पोताना कुटुंबीना नामे करे तो ते खरेखर व्यवहार साचवे छे अने मरनार उपरनी पोतानी प्रीति अने भक्तिज जणावे छे ॥ १०० ॥ अथ तस्मिंस्तिरोभूते, व्यन्तरे क्षोणिनायकः । साक्षात् पुण्यफलं दृष्ट्वा ऽभवत्तत्रैव सादरः ॥ १०१ ॥ भावार्थ - हवे ते व्यंतर देव अदृश्य थइ गया पछी, राजा समुद्रपाल पुण्यनुं प्रत्यक्ष फल देखी पुण्योपार्जन करवामां आदरयुक्त थयो. ॥ १०१ ॥ बन्धोरपि श्रेयो-विषये काङ्क्षताऽन्यदा । तामलिप्त्यां तदाहूति-हेतोः मैषीन्निजो नरः ॥ १०२ ॥ ना. च. ||३८| Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- पोताना लघु बांधव सिंहे जो के पोतानुं अनिष्ट करेलुं धतुं छतां 'कोई पण रीते तेनुं श्रेय थाय तो सा' एप विचारी तेनुं कल्याण क्रस्वानी बुद्धिधी सज्जन स्वभावी समुद्रपाले एक दिवस तामलिप्ती नगरीमा तेने बोलावा माटे पोताना विश्वासु माणसने मोकल्यो । १०२ ।। ना. सतत्र गत्वाऽऽगत्याथ, प्रोचे सिंहोऽस्ति तत्र न । प्रपलाय्य गतः क्वापी-त्यापि शुद्धिः पुरे न तु ॥ १०३ ॥ च. भावार्थ - ते माणस तामलिप्ती नगरीमा जइने पाछो आव्यो, अने कछु के- ' सिंह तामलिप्ती नगरीमां ||३९| 'नथी, अने नासीने क्यां गयो छे तेनी पण तपास करवा छतां शोध मळी शकी नथी ' ॥ १०३ ॥ न्यायेन पालयन् राज्यं, प्रत्यदं स्वकुटुम्बयुक् । यात्रा अनेकशः कुर्वे - चिरं सौख्यममुङ्क्त सः ॥ १०४ ॥ भावार्थ- समुद्रपाल नीतिथी पोताना राज्यनुं पालन करवा लाग्यो, अने प्रत्येक वर्षे शत्रुंजयादि तीर्थोनी अनेक यात्राओ करतो छतो घणो काळ सुख भोगचवा लाग्यो ॥ १०४ ॥ अभूतपूर्व श्रुत्वा तद्वैरनिर्यातनं नृपाः । कम्पमानाः साभिमाना, अप्यस्मै नेमिरे स्वयम् ॥ १०५ ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-भिन्न भिन्न देशना राजाओ अभिमानी अने पराक्रमी होवा छता पण, पूर्वे कदापि नहीं अनुभवेलो || वैरनो बदलो सांभळी तेना पुण्य प्रतापथी कंपायमान थता पोतानी मेळेज नमवा लाग्या ॥ १०५ ।। राज्ये न्यस्य सुतं ज्येष्ठं, लक्ष्मी कृत्वाथ पुण्यसात् । ना. समुद्रपालो वैराग्याद्, व्रतमादत्तं सद्गुरोः ॥ १०६ ॥ भावार्थ-पवित्रात्मा ते समुद्रपाल राजाए नीतपूर्वक घणां वर्ष राज्य कर्यु. छेक्टे पोताने वैराग्य थवाथी मोटा पुत्रने राज्य उपर स्थापन कर्यो, अने पुण्यार्थे सारी कार्योमां लक्ष्मीनो व्यय करी सद्गुरु पासे दीक्षा ग्रहण || १४| करी ॥ १०६॥ अथैकविंशतिघस्रान्, साधिताऽनशनः शमी। जज्ञे सर्वार्थसिद्धाख्ये, विमानेऽनुत्तरे सुरः ॥१०७॥ भावार्थ-वैराग्यमा मग्न बनेला ते समुद्रपाल महामुनि शांतिपूर्वक एकवीश दिवस अणसण करी सर्वार्थसिद्ध नामना देवलोकने विषे अनुत्तर विमानमा देवपणे उत्पन्न यया ॥ १०७ ॥ - ततश्च्युत्वा कुलं शुद्धं, लब्ध्वा संयमराज्यतः। आसाद्य केवलं ज्ञानं, मोक्षसौख्यमवाप सः ॥ १०८ ॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - त्यांथी व्यवीने पूर्व भवमां प्राप्त करेला श्रेष्ठ चारित्ररूप राज्यना बलथी उत्तम कुळ पामीनें केवलज्ञान प्राप्त करी मोक्षे गया ।। १०८ ॥ इतश्च तामलिप्त्यां स, सिंहः श्रुत्वा स्वबान्धवम् । राज्ञा विसृष्टं सत्कृत्य, यात्रार्थ सत्यभाषणात् ॥ १०९ ॥ निजाऽऽगःशङ्कया सर्व-मादाय सपरिच्छदः । जगाम सिंहलद्वीप, पोतमारुह्य तत्क्षणात् ॥ ११० ॥ युग्मम् । भावार्थ - हने तामलिप्ती नगरीमां समुद्रपालनो नानो भाइ जे सिंह हतो तेणे पोताना मोटा भाइने कष्टमां नास्वा माटे राजाने भंभेर्यो हतो, पण समुद्रपाले सत्य हकीकत जाहेर करवार्थी छेवढे सत्यनो विजय थयो, अने तेथी समुद्रपालनो दंड करवाने बदले तेनो उलटो सत्कार करी राजाए शत्रुंजयनी यात्रा माटे विसर्जन कर्यो. आ प्रमाणे बनेली हकीकत सांभळी पोते राजानो गुन्हेगार बनवानी शंकाथी सिंह परिवार सहित पोतानुं सर्व लइने तेज क्षणे वहाण उपर चडी समुद्र मार्गे सिंहलद्वीप गयो । १०९-११० ॥ • राजप्रसादं तत्राप्य, दन्तिदन्तजिघृक्षया । घोरे स्वयमरण्येगा - दलाभादन्यवस्तुनः ॥ १११ ॥ ना. च. ||४१॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. ॥४॥ ___ भावार्थ-सिंहल द्वीपमा सिंहे त्यांना राजानी महेरवानी मेळवी. पछी अन्य वस्तुओनी खरीदीथी लाभ न थाय || तेवू होवाथी हाथीदांत ग्रहण करवानी इच्छाथी पोते घोर अरण्यमा गयो । १११ ॥ - स तत्र दन्तिवधकै-दन्तवृन्दान्यथाऽऽनयत् ।. पापद्रव्येण यत् पापे-वेव बुद्धिः प्रजायते ॥ ११२ ॥ भावार्थ-ते जंगलमा हायीना वध करनार माणसो द्वारा हाथीदांत मंगावीने खरीद कर्या. खरेखर शास्त्रमा च. कारोए सत्यज वचन का छे के-'पापथी संचय करेल धनधी पापकारी अधम कृत्यो करवानीज बुद्धि उत्पन्न थाय || छे.' आपणामां एक लौकिक सादी कहेणी छे के-'जेवो आार तेवो ओडकार.' माटे सुज्ञ जनोए नीतियुक्त धन उपार्जन करवामांज प्रयत्नशील बनवू जोइए. श्रावकने प्रथम मोक्षमार्ग तरफ दोरवनार मार्गानुसारीना पांत्रीश गुणो पैकी 'न्यायथी द्रव्य मेळवq ' ए प्रथम गुण छे, अने ए गुण मेळवा माटे दरेक मनुष्ये पोताना विचार मक्कम करवा जोइए के " मारा जीवननो मुखपूर्वक निर्वाह करवा माटे नीतिमार्गथी द्रव्य मेळवीश." आ जीवनसूत्र दोके पोताना हृदयपट्ट उपर सवर्णाक्षरे कोतरी राखवं जरुरनं छे ॥ ११२॥ भृत्वा चत्वारि यानानि, दन्तैर्वारिधिवर्त्मना। मुक्तवा कुटुम्वं तत्रैव, सुराष्ट्रां प्रति सोऽचलत् ॥ ११३॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-हवे ते तिहे त्यां हाथीदांत खरीद करी चार वहाण भर्या, अने पोताना कुटुंबने तजि मूकी समु-|| द्रमार्गे सोरठ देश तरफ़ ते चाल्यो ॥ ११३ ॥ . तीवा समुद्र क्षेमेण, सुराष्ट्रातटसंकटे । ना. भग्नानि तानि यानानि, न हि श्रेयोऽतिपिनाम् ॥ १.१४ ।। भावार्थ-समुद्रमार्गे जता जतां ठेठ मुधी जलमार्ग कुशलता पूर्वक ओळग्यो, पण सोरठ देशना किनारा । नजीक आवतां अकस्मात् कोइ खराबा साये अथडावाथी चारे वहाण भांगी गया; खरेखर पापकर्मथी आजीविका ||४२५ चलावनार अति पापी पुरुषोनु कदापि कल्याण थातुं नथी ।। ११४ ॥ ततः सिंहो विपद्याऽऽद्य-नरकं तत्र वेदनाः। विषयोध्धृत्य संजातः, सिंहो हिंसापरायणः ॥ ११५ ॥ भावार्थ-चारे वहाण भांगी जवाथी सिंह समुद्रमा दूवी मरणने शरण थयो, अने पहेली नारकीमा उत्पन थयो. त्या अत्यंत तीव्र वेदनाओ सहन करी, आयुष्य पूर्ण यतां त्यांथी नीकळी तिर्यंचना भवमां हिंसाने विषे तत्पर एवो सिंह थयो ॥११५ ॥ यह Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यं गत्वा पुनः श्वनं, जज्ञे. दुष्टसरीसृपः। द्वितीयनरकं भुक्त्वा , दुष्टपक्षी बभूव सः ११६॥ भावार्थ-सिंहना भवमा पण अनेक प्रकारनां हिंसादि कृत्यो करी फरी पहेली नारकीपां गयो. त्यांची ना. नीकळी दुष्ट सापपणे उत्पन्न थयो. त्यांथी बीजी नारकीमा गयो, त्या पण अपार दुःखो भोगवी दुष्ट पक्षी थयो. ॥ ११६ ॥ तृतीयनरकं प्राप्य, दुष्टसिंहोऽभवद् धने। चतुर्थनरकं गत्वा, सर्पो जायत दृग्विषः ॥ ११७ ॥ |॥४४॥ भावार्थ--त्यार बाद त्रीजी नारकीमा गयो. त्यांची वनमो दुष्ट सिंह थयो. सिंहनुं आयुष्य पूर्ण करी चौथी नारकीमां गयो, त्यां कष्टकारक दुःखो भोगवी दृष्टिविष सर्प थयो. ॥ ११७ ॥ पश्चम नरकं लब्ध्वा, चण्डालस्त्री.ततोऽजनि । अवाप्य नरकं षष्ठ-मजनिष्टाऽर्णवे तिमिः ॥ ११८ ॥ भावार्थ-त्यांथी पांचमी नारकीमां गयो, त्यारबाद चंडालनी स्त्री थयो. तदनन्तर छही नारकीमा गयो. ॥ त्यांथी समुद्रमा मत्स्य थयो. ॥ ११८ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तमं नरकं गत्वा, मत्स्योऽजायत तन्दुलः ।। पुनः सप्तममेवाऽगा-नरकं दुःखसागरम् ॥ ११९ ॥ भावार्थ-मत्स्यनुं आयुष्य पूर्ण करी सातमी नारकीयां गयो. त्यांची नीकली तंदुलीयो मत्स्य थयो. ना. त्यांयी वळी पाछो दुःखना सागर समान सातमीज नारकीमा गयो. ॥ ११९ ॥ विपर्यासेन चण्डाल-स्त्र्यादियोनिषु पूर्ववत् ।। क्रमेण सेहे कष्टानि, षष्ठादिनरकेषु च ॥ १२० ॥ ॥४५॥ भावार्थ-वळी पाछो विपर्यास वडे [उलटी रीते] चंडालस्त्री विगेरे योनिमां तथा क्रपसर छट्ठी विगेरे नारकीमा पूर्वनी जेम उत्पन्न थइ असा कष्टो सहन कर्या ॥ १२०॥ ..... ततो निपतितो घोरे, संसारे दुःखसागरे । देवद्रव्यविनाशस्य, ज्ञेयं सर्वमिदं फलम् ॥ १२१ ॥ भावार्थ-त्यार पछी दुःखसागर घोरसंसारमा भिन्न भिन्न स्थळे उत्पन थइ अपार कष्टो सहन करतो || छतो रझळ्यो. आ सर्व देवद्रव्य विनाशचं ज फळ जाणतुं ॥ १२१॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्यायात् स्वल्पदेवस्व-भक्षणादपि यद्यभूत्। शैवः श्रेष्ठी सप्तकृत्वः, श्वाऽतो वै त्याज्यमेव तत् ॥१२२॥ भावार्थ- अन्यायथी जरा मात्र पण देवव्यनुं भक्षण करवाथी शैव शेठ सातवार कूतराना भवमां | ना. उत्पन्न थयो, माटे खरेखर ते तजवा योग्य छे ॥ १२२ ॥ अत्रान्तरे विभो! कोऽसौ, श्रेष्ठी जातश्च श्वा कथम् । इति नामाकभूपेन, पृष्टे गुरुरभाषत ॥ १२३ ॥ भावार्ष-आ वखते नाभाक' राजाए महात्मा युगंधराचार्यनें पूछयुं के–'प्रभो! आ शैव शेठ कोण? अने | तेने सात वखत कूतरानो अवतार केम ग्रहण करवो पड्यो ?' आ प्रमाणे नाभाक राजाए पूछवाथी सद्गुरु महाराजे पण ते चरित्रनुं स्वरूप नीचे प्रमाणे कहेवानो आरंभ कर्यो ॥ १२३ ॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यो-भरतैरवतक्षितौ । प्रत्येक किल जायन्ते, शलाकाः पुरुषा अमी ॥१२४॥ चतुर्विंशतिरहन्त-स्तथा द्वादश चक्रिणः। विष्णुप्रतिविष्णुरामाः, प्रत्येकं नवसङ्ख्यया ॥१२॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - भरत क्षेत्र अने ऐरवतक्षेत्रमा उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणी काळमां त्रेसठ त्रेसठ शलाकापुरुषो थाय छे, अने ते आप्रमाणे चोवीस तीर्थकर, बार चक्रवर्ती, नव वासुदेव, नव प्रतिवासुदेव अने नव राम (बलदेव) ।। १२४-१२५ ।। एतेषु पूर्व श्रीरामो, राज्यं न्यायेन पालयन् । कृपया निःस्वलोकानां, न्यायघण्टा मवीवदत् ॥ १२६ ॥ भावार्थ - ए प्रेसठ पुरुषोमां पड़ेलां श्रीराम नीतिपूर्वक राज्यनुं पालन करतो हतो, अने गरीब मजा उपर दयादृष्टि राखी न्यायनो ढंको वज़डाव्यो हतो ॥ १२६ ॥ एकदा कुर्कुरः कश्चिन्निविष्टो राजवर्त्मनि । केनचिद् विप्रपुत्रेण, कर्करेणाहतः श्रुतौ ॥ १२७ ॥ भावार्थ - तेना राज्यमां एक दिवस जाहेर रस्ता उपर एक कूतरो बेठो हतो, ते कूतराने कान उपर कोई ब्राह्मणना छोकराए कांकरो फेंकी घायल कर्यो ॥ १२७ ॥ श्वा निर्यद्रुधिरो न्याय - स्थानं गत्वा निविष्टवान् । नाय पृष्टोऽव, निरागाः किमहं हतः ॥ १२८॥ ना. च. ॥४७॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - वहता लोहीथी खरडायेल ते कूतरो राजाना न्यायमंदिरमां जइ बेठो राजाए तेने बोलावीने राजसभामां आववानुं कारण पूछयुं, त्यारे तेणे कयुं के ' हुं निरपराधी छतां मने ब्राह्मणना छोकराए केम मार मार्यो ? ' ॥ १२८ ॥ तद्घातकं विप्रपुत्रं, तत्रानाय्य. नृपोऽब्रवीत् । असौ त्वघातको ब्रूहि, कोऽस्य दण्डो विधीयते ? ॥ १२९ ॥ भावार्थ - राजाए तेने मारनार ब्राह्मणना छोकरानी तपास करावी सभामा बोलायो, अने कूतराने क के - ' आ तने मारनार छे, माटे बोल, आने भुं शिक्षा करवी ?" ।। १२९ ।। भावार्थ श्वावोचदथ रुद्रस्य, मठेऽयं हि नियोज्यताम् । क एष दण्डो राज्ञेति, पृष्टः श्वा च पुनर्जगौ ॥ १३० ॥ तरीके नीम कूतराए कछु के- 'तेने मात्र एटलीज शिक्षा करो के अहींना शिवना देवालयमां तेनी पूजारी करो' । आ प्रमाणे कूतराए कहेलुं अयोग्य वचन सांभळी राजाए विस्मित थइ पूछयुं के -' आ दंड कहेवाय ? ' । त्यारे कूतराए पोतानो सर्व सविस्तर वृत्तान्त जणान्यो के ॥ १३० ॥ ना. च. ४८। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागहं सप्तजन्मभ्यः, पूजयित्वा सदा शिवम् । . देवस्वभीत्या प्रक्षाल्य, पाणी भोजनमाचरम् ॥ १३१ ॥ भावार्थ-हुं मारा आ कूतराना जन्मथी सात भव पहेलां मनुष्य हतो, अने हमेशां शिवनी पूजा करी । देवद्रव्य भक्षण करवाना दोषथी डर पामी मारा बन्ने हाथ धोइने जमवा बेसतो हतो ॥ १३१ ।। स्त्यानाज्यमन्यदा लिङ्ग-पूरणे लोकढौफितम् । विकरणेऽस्य काठिन्याद्, नखान्तः प्राविशन्मम ॥ १३२ ॥ भावार्थ-एक दिवसे लोकोए. शिवलिंग पूरवा माटे थीजेलं घी मूक्यु. कठिन होवाथी ते घी छुटुं पाडतां मारा नखपां भराइ गयुं ॥ १३२ ॥ विलीनमुष्णभक्तेना-जानता तन्मयाहृतम् । तेन दुष्कर्मणा सप्त-कृत्वो जातोऽस्मि मण्डनः ॥ १३३ ॥ भावार्थ-त्यार बाद शिवना मंदिरमांथी नीकळी घेर आवी भोजन करवा बेटगे. उष्ण भोजनथी ते नखमांनं घी ओगळी गयु, अने जमतां जमतां अजाणतां ते घी पण भोजन साये खवाइ गयु. फक्त एटलाज देवद्रव्यनुं भक्षण करवा रूप दुष्कर्मथी हुं सातबार कूतराना जन्ममा अवतर्यो ॥ १३३ ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1५०1 सप्तमेऽस्मिन् भवे राजन् !, जाता जातिस्मृतिर्मम । अधुना तत्प्रभावेणो-त्पन्ना वाग् मानुषी पुनः ॥ १३४ ॥ भावार्थ-हे राजन् ! आ सातमा भवयां मने जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न ययुं छे, अने हमणां तेना प्रभावथी || मने मानुषी याचा उत्पन्न थवाथी आ बीना तमारी समक्ष यथार्थ निवेदन करी छे ॥ १३४ ॥ अत्रान्तरे गुरुं नत्वा, जगौ नाभाकभूपतिः।। . श्रुत्वैतिहमदो बाई, कम्पते हृदयं मम ॥ १३५ ॥ भावार्थ-आ प्रमाणे गुरुमहाराजना मुखथी पूर्वोक्त दृष्टान्त सांभळी नाभाकराजाए गुरुमहाराजने नमस्कार करी कर्वा के-'प्रभो! आ कथानक सांभळी म्हारं हृदय घणुंन कंपायमान थाय छे' ॥ १३५ ॥ . गुरुरूचेऽथ यद्येवं, तत्कथामग्रतः शृणु। यथा सम्यक् फलं वेत्सि, देवद्रव्यविनाशिनाम् ॥ १३६ ॥ भावार्थ-त्यारे गुरु हाराजे क ह्यु के-'जो एम छे तो हवे आगळ नागगोष्ठीनी कथा सांभळ, के जेथी देवद्रव्य विनाश करनारने के, फळ प्राप्त थाय छे तेनुं तने सम्यक् प्रकारे जाणपणुं थाय, अने तेथी तुं सदाने माटे अलग रहे' ॥ १३६ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ षष्टिवर्षसहस्राणि, श्रीशत्रुञ्जयपर्वते । आयुर्भुक्त्वा नागजीवो, व्यन्तरश्च्युतवानथ ॥ १३७ ॥ भावार्थ-व्यंतर देवपणे उत्पन्न कयल नागश्रेष्ठीनो जीव श्रीशQजय पर्वत उपर साठ हजार वर्ष, आयुष्य भोगवी त्यांची च्यव्यो ॥ १३७ ॥ कान्तिपुर्या रुद्रदत्त-कौटुम्बिकसुतोऽभवत् । सोमाभिधानस्तन्माता, पत्रमेंन्देहिना मृता ॥ १३८॥ . भावार्थ-श्रीशमुंजय पर्वत उपर व्यंतरपणे उत्पन्न बल नागश्रेष्ठीनो जीव साठहजार वर्षतुं आयुष्य भोगवी | व्यवीने कांतिपुरी नगरीमा रुद्रदत्त नामना कुटुंबीनो सोम नामनो दीकरो थयो. ते पुत्र ज्यारे पांच वर्षनी उम्मरमो थयो त्यारे वेनी माता सर्पदंश थवाथी मरण पामी ॥ १३८ ॥ . तत्रास्ति नास्तिकः प्राति-वेशिमको देवपूजकः।। सोमोऽपि सह तत्पुत्रै-योति देवनिकेतने ॥ १३९ ॥ भावार्थ-वे नगरीमा तेना घरनी नजीक नास्तिक नामनो देवनो पूजारी पाडोशी रहेतो हतो, ते पूजारी|| ना पुत्रो साये सोम पण देवमंदिरमा जवा लाग्यो ॥ १३९ ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवद्रव्यमयैः पूजा-ऽवशिष्टैश्चन्दनैर्वपुः ।। विलिप्याकण्ठमाच्छाद्य, वाससा पर्यटत्यसौ ॥ १४० ।। भावार्थ--पूजा करतां बाकी रहेल देवद्रव्य रूप चंदनथी पोताना आखा, शरीरे विलेपन करी, कोइना || ना, देखावमां न आवे माटे गळा मुधी वस्त्र ढांकीने सोम हमेशां पूजारीना छोकराओ साये रझळवा लाग्यो ॥ १७॥ || वयःस्थः सोऽन्यदा देव-कोषं हत्वा पलायितः । स्तेना मुषित्वा तं पार-सीकदेशे विचिक्रियुः ॥ १४१॥ |॥५२॥ भावार्थ-हवे ज्यारे सोम योग्य उम्मरनो थयो त्यारे एक दिवस ते शिवना मंदिस्माथी देवनो भंडार चोरीने नासी गयो, तेनुं चोर लोकोए हरण करी पारसीक देशमा वेच्यो ॥ १४१ ॥ तत्र वस्त्राणि रज्यन्ते, तस्य रक्तैस्ततोऽसकौ । पलाय्याऽम्भोधिमुत्तीर्य, ब्रजन्नध्वनि कुत्रचित् ॥ १४२ ॥ ग्रामप्रवेशेऽभ्यायान्तं. मुनि मासोपवासिनम् । निहत्य यष्ट्या त्रीन वारान् , पापः पृथ्व्यामपातयत् ॥ १४३॥ युग्मम् ।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-पारसीक देशमा तेना लोही वडे वस्त्रो रंगावा लाग्या. आवी रीते आपत्तिमां आवी पडेलो ते ।। सोम लाग जोइ त्यांची नाठो, समुद्र उतरीने रस्तामा जता कोइ एक गाम आव्यु. याममा पेसतांन तेनी सन्मुख आवता मास उपवासवाला एक मुनिने ते पापीए लाकडी वडे त्रण वार प्रहार करी जमीन उपर पाडी दीधा ॥ १४२-१४३ ।। तस्मिन्नथ विपन्नेऽसौ, नश्यनारक्षकैधृतः। कृपया मोचितः श्राद्धः, पलाय्यं कृतवानथ ॥ १४४ ॥ भावार्थ- लाकडीना अतिशय प्रहारथी मुनिराज त्यजि मरण पाम्या. मुनिने मारी सोम त्यांची नासतो हतो तेवामां रस्तामों कोटवाळोए पकड्यो, पण त्यांना दयाल श्रावकोए करुणा लावी छोडाव्यो. त्यार बाद सोम त्यांथी पलायन करी जंगलमा चाल्यो गयो ॥ १४४ ॥ मृत्वा दावाग्निनाऽरण्ये, सप्तमं नरकं गतः। ऋषिहत्यामहापापं, तत्कालं स्यात् फलप्रदम् ॥ १४५ ॥ भावार्थ-अरण्यमा दावानळयी मरण पापीने सातमी नारकीमां गयो, कारण के मुनिहत्यानुं महापाप तत्का|| ल फळ आपे छे ॥ १४५ ।। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागराणि त्रयस्त्रिंश-सत्र भुक्त्वा महाव्यथाः। उधृतो घोरसंसारं, भ्रमित्वा हालिकोऽभवत् ॥ १४६ ॥ भावार्थ-हवे ते सोम सातमी नारकीमा तेत्रीच सागरोपम सुधी महाव्यथाओ भोगवी, त्यांची नीकळी | ना. दुःखमय संसारमा भटकी भटकी खेडुत थयो ॥१४६ ॥ कौशिकाल्योऽम्बरग्रामे, ग्रामेशस्य गृहे च सः। कर्माणि कुर्वन् सर्वेषां, हालिकानां कृतेऽन्यदा ॥ १४७ ॥ आदाय भक्तं प्राचालीद्, मार्गे मासोपवासिनम् । वीक्ष्य सन्मुखमायान्तं, मुनि भक्त्या न्यमन्त्रयत् ॥ १४८ ॥ युग्मम् ।। भावार्थ-खेडुतना भवमां जन्म लीधेल सोमनुं नाम कौशिक हतुं. ते कौशिक अंबर नामना गाममा ते गामना स्वामीने घेर काम करतो, अने पोतानो निर्वाह चलावतो. एक दिवसे कौशिक सर्व खेडुतोने माटे भात लइ. खेतर जवाने नीकळ्यो. रस्तामा मास उपवासवाला एक मुनिराजने सामा आवता जोइ अत्यंत भक्तिपूर्वक || पोतानी पासे रहेल भात वहोराववा विनति करी ॥ १४७-१४८ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्रा फलं पूर्व, प्रत्यब्दं यत् समुद्रतः । तेन प्राप्तं ततः पुण्यात्, तस्यैषा वासनाऽजनि ॥ १४९ ॥ भावार्थ - तेने आखेडुतना भवमां सुनिने अन्न वहोरावना रूप शुभ अध्यवसाय उत्पन्न थयो तेनुं कारण एज के, तेजे पूर्वभवर्मा समुद्रपाल राजा पासेथी दरवर्षे वे यात्रानुं फळ मेळच्यु हतुं, अने ते पुण्यना प्रभावथीज तेने आवा प्रकारनी शुभ वासना उत्पन्न थइ ॥ १४९ ॥ स्यादेतद्भक्तॄणामन्तरायस्ततो । कल्पतेऽन्नमिदं साधु-नेत्युक्ते च सकते जगौ ॥ १५० ॥ भावार्थ — कौशिके भात ग्रहण करवानी विनति करी स्थारे मुनिराजे कछु के-' आ भोजन तु खेतरवां भोजन करनाराओ माटे लइ जाय छे, ते अन्न जो हुं ग्रहण करूं तो तेओने अंतराय थाय, तेथी आ भात मारे वहोर कल्पे नहीं.' आ प्रमाणे मुनिराजे ज्यारे भात बहोरवानी अनिच्छा दर्शावी स्थारे तेणे कहुं के ।। १५० ॥ कृत्बोपवासमन्यय, दास्ये भक्तं निजं ध्रुवम् । सयः प्रसच गृह्णीते- त्याच हादग्रही मुनिः ॥ १५१ ॥ ना. च. 1५५| Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भावार्थ-'हुं आजे उपवास करीने पण मारा भागर्नु भोजन आपने वहोरावीशज, माटे मारा उपर कृपा || | करी जलदी आ भात ग्रहण करो' । आ प्रमाणे तेना अतिशय आग्रहथी मुनिराजे ते अन्न वहोर्यु ॥ १५१ ॥ ततः कृत्वोपवासं, स, निषेधं चाऽसुमद्धे । ना. साधोः पार्थात् प्राप्तराज्य-मिवात्मानममन्यत ॥ १५२ ।। भावार्थ-त्यार बाद ते खेडुत मुनिराज पासेथी उपवासवें तथा प्राणिवधनुं पञ्चक्खाण करी 'चरखर आजे " में महात्मा मुनिराजने अन्नदान आपी राज्य मेळव्यु छे' ए प्रमाणे पोताना आत्माने मानवा लाग्यो ॥ १५२ ॥ ५६ __एवमर्जितसत्कर्मा, कौशिको भद्रकाशयः। विपद्य चित्रकूटाद्रौ, चित्रपुर्या नृपोऽभवत् ॥ १५३ ॥ भावार्थ-आवी रीते भद्रक परिणामी ते कौशिके 'पुण्य उपार्जन करी, आयुष्य पूर्ण थतां मरण पामी, चित्रकूट पर्वत पर रहेल चित्रपुरी नगरीमो राजा धयो ॥ १५३ ॥ . .. चन्द्रादित्याभिधः शुद्ध-दयापुण्यविभावितः । निरामयो महारूपा-ऽनङ्गीकृतमनोभवः ॥ १५४ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - तेनुं नाम चन्द्रादित्य राखवामां आन्युं हतुं चन्द्रादित्यनुं हृदयं शुद्धदया अने पुण्यना संस्कार. वाळं हतुं, शरीरे निरोगी हतो, तेनुं शारीरिक सौंदर्य अने लावण्य एम्लुं बधुं सुशोभित हतुं के जाणे रूपमा कामदेव पण तेनाथी पराभव पामे ॥ १५४ ॥ तस्याss कण्ठवपुर्दुष्ट - कुष्ठेनाश्लिष्टमन्यदा । तेनाssकण्ठपटीच्छन्न- देह एव स तिष्ठति ॥ १५५ ॥ कदाचित् प्रौढपापर्द्धि-रपि पापर्द्धि हेतवे । तत्सामग्रीयुतः प्राप, श्वापदानां पदं वनम् ॥ १५६ ॥ मा. 'भावार्थ- पूर्व भवमां करेला कर्मना उदयथी कोइ दिवस तेने पगथी मांडीने गळा सुधी शरीरे दुष्ट कोट १५७ रोग उदूभव पाम्यो, तेथी ते सदैव गळा सुधी वस्त्रधी आच्छादित थइनेज रहे छे ।। १५५ ।। भावार्थ - चन्द्रादित्य कर्मना उदययी पूर्वे करेला अतिशय पापनुं फळ भोगवी रह्यो हतो, छतां हजु सुघी तेनी बुद्धि ठेकाणे न आवी, अने दुष्ट मतिथी विवेकहीन बनेलो ते राजा शिकार करवा मांटे शिकारी पशुओथी व्याप्त बनेका वनमां शिकारनी सामग्रीयुक्त थइने गयो ॥ १५६ ॥ च. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्र रणतुरङ्गेण, कुरङ्गवधरङ्गतः। घावमानो मुनि कायो-सर्मस्थं वीक्ष्य पृष्टवान् ॥ १५७ ॥ भावार्थ-वनमा पूर वेगयी दोडता घोडा बडे हरणीयाओनो वध करवाने आसक्त बनेला अने तेओनी || ना. पाछळ पडेला ते राजाए काउसग्गमा रहेला एक झुनिने देखी पूछयु के-॥१५७ ॥ कस्यां दिशि मृगा जम्मु-निः प्रोक्त नाऽवदन्मुनिः। __ राजा जिघांसूणेन, तमपि स्तमितोऽभितः ॥ १५८ ॥ भावार्थ-'मृगलाओ कइ दिशामा गया है ?' आ प्रमाणे त्रण वखत चन्द्रादित्ये पूछवा छतां मुनिराज काइ पण बोल्या नहीं, त्यारे ते मुनिने पण वाण बड़े हगवानी इच्छाबाळो चन्द्रादित्य तैयार थयो ॥ १५८ ॥ कायोत्सर्ग पारयित्वा, मुनिस्तारस्वरं जगौ। पाच्याछुटसि नाऽद्यापि, मव्यं च कथमजेसे.१ ॥ १५९ ॥ भावार्थ-मुनिए काउसग्ग पारीने अतीव गंभीर स्वरे कधु के-'हजु मुभी पूर्वनां बांधेलां कर्मथी तो || छूटतो नथी, अने नवां कर्मो केम बांधे छ ?' ॥ १५९ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भने नवीन कर्म // ना. मुनेनिनंसया सथो, मुत्कलाङ्गोऽथ भूपतिः । प्राच्य-नव्यादिवृत्तान्त, पनच्छ प्रणिपत्य तम् ॥ १६० ॥ भावार्थ-मुनिराजनी आग प्रकारनी गूढ अर्थवाली वाणी सांभळी तेमने वंदन करवानी इच्छाथी राजाए जलदी पोताना शरीर उपरथी हथियार विगेरे उतारी नाख़ी, मुनिराजने वंदन करी, प्राच्य कर्म अने नवीन कर्म विगेरे सर्व बीना पूछी ॥ १६०॥ प्रोचे मुनिरयोऽयोध्या प्राप्तकेवलिनो मुखात् । देवद्रव्यविनाशस्या-ऽधिकारे प्रौढावर्षदि ॥ १६१ ॥ त्वत्पूर्वभवसम्बन्ध, स्वबोधं चाऽथ भापिनम् । ज्ञात्वाऽऽगत्य वनेऽत्राहं, कायोत्सर्गेण तस्थिवान् ॥ १६२ ॥ युग्मम् । 'भावार्थ-मुनिराज बोल्या के-" अयोध्या नगरीमा प्राप्त थयेल केवली भगवानना मुखथी प्रौढ पर्षदामा 'देवदव्यनो विनाश करवाथी प्राणीने केवी विडंबना भोगवनी पडे छे' तेनो अधिकार चालतो हतो, तेमां में तारा पूर्वभवतुं संपूर्ण वृत्तान्त सांभळ्युं, अने तुं माराथीज प्रतिवोष पामीन र प्रमाणे जाणीने हु आ वनमा काउसम्ग भ्याने रयो हतो ॥ १६१-१६२॥ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||६० को मे प्रारभवसम्बन्ध, इति पृष्टे नूपेण सः। प्राचीकथन्मुनि ग-गोष्ठिकाख्यानमादितः ॥ १६३ ॥ भावार्थ-नृपतिए पूज्यु के-'स्वामिन् ! मारा पूर्वभवनो शो वृत्तान्त छे ते कृपा करी जणाबो.' त्यारे शांत ना. मुद्राधारी तेज परोपकारमांज निरंतर परायण मुनिराजे नागगोष्ठिकना भवथी आरंभी अंत मुधी सर्व वृत्तान्त जणाव्यो ॥ १६३ ।। प्राज्यं राज्यं शुद्धदानाद्, दद्यातो रूपमुत्तमम् । दुष्टं कुष्ठं अवहेहे-ऽभवद्देवविलेपनात् ॥ १६४ ॥ भावार्थ-परोपकार रसिक ते मुनिराजे विशेषमा जणाव्यु के-"तें पूर्व खेडुतना भवमा मुनिने शुद्ध दानथी प्रतिलाभ्या हता, तेना प्रभावी आ भवमां तने श्रेष्ठ राज्य प्राप्त थयु छ, अने दयागुणथी उत्तप रूप मळ्यु छे. पण पूर्वे तुं कांतिपुरी नगरीपां रुद्रदत्तनो सोम नामनो- पुत्र थयो हतो, ते भक्मां ते. देवद्रव्यरूप चंदननुं शरीरे विलेपन कर्यु हवं, तेथी आ भवमां तारा शरीरे दुष्ट कोढ रोग थयो छे" ॥ १६४ ॥ श्रुत्वेति भूपतिर्भातः, प्रणिपत्य यतेः पदो। . बभाषेऽस्मान्महापापाद्, मुने! मोचय मोचय ॥ १६५ ॥ - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ प्रमाणे मुनिना मुखथी पोताना पूर्वभवनो संबंध सांभळीने राजा पापी भय पाम्यो, अने मुनिना चरणकमळमां पढी गद्गद स्वरे बोल्यो के-'हे कृपासिंघो! मने आ महान् पापथी छोडाको छोडावो ॥१६५॥ परमेष्ठिमहामन्त्रं, नृपायोपादिशन्मुनिः । तस्याऽर्थे च प्रभावं च, विधिं च स्मरणेऽखिलम् ॥ १६६॥ भावार्थ-मुनिए राजाने पंचपरमेष्ठी रूप महामंत्रनो उपदेश कों, तथा पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान करतां तेनो । अर्थ प्रभाव अने विधि सर्व सारी रीते समजाव्या ॥ १६६॥ देवस्वपातकाद् देव-प्रासादस्य विधापनात् ।। मुच्यते जन्तुरित्याख्यत्, प्रायश्चित्तं च शास्त्रवित् ॥ १६७ ॥ भावार्थ-तथा शास्त्रना जाणकार ते मुनिराजे देवद्रव्य विनाश- प्रायश्चित्त पण जणाव्यु के-'देवद्रव्यनो विनाश करनार पाणी देवमंदिर कराववाथी ते पापथी छूटे छे ॥ १६७ ॥ अथ राजा पुरे स्वीये, स्थापयित्वाऽऽग्रहाद यतिम् । यथोपदेशमारेभे, महामन्त्रस्मृति ततः ॥१६८ ॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ना. - भावार्थ-त्यार बाद राजाए मुनिराजने अत्यंत आग्रह करी पोताना नगरमा राख्या, अने तेओश्रीए जेवी || | विधिए उपदेश आप्यो ते प्रमाणे पंचपरमेष्ठी महामंत्रनुं निरंतर ध्यान करवानो आरंभ कर्यो ॥ १६८ ॥ षड्डिासैर्नृपस्याऽभूत्, कायः काञ्चनकान्तरुक् । राज्यं गजाश्वकोशादि-वृद्धया भेजे विशालताम् ॥ १६९ ॥ भावार्थ-पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान करतां छ मासमा चन्द्रादित्यनुं शरीर सुवर्ण सदृश मनोहर कांतिवाडं थइ गडे, अने हाथी घोड़ा तथा भंडार विगेरेनी वृद्धि यवायी राज्य पण विशाळ यइ गयुं ॥ १६९ ॥ शीर्षेऽथ चित्रकूटस्य, प्रासादं परमेशितुः। सुपर्वपर्वतोत्तुङ्ग-शृङ्ग प्रारभयन्नृपः ॥ १७० ॥ . भावार्थ-त्यार बाद चन्द्रादित्य राजाए चित्रकूट पर्वतना शिखर उपर परमात्मा जिनेन्द्र प्रभुनु मेरु पर्वत समान उंचा शिखरवाळं देरासर बंधाचवानी शरुआत करी ॥१७॥ मुनिपार्श्वे निविष्टस्य, क्षमापतेः पुरतोऽन्यदा । प्रदर्शयन् खरं कश्चित् , कुम्भकारो जगाविति ॥ १७१ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - एक दिवस मुनिराज पासे राजा बेठो हतो, तेत्रायां तेनी आगळ एक गंधेडाने बतावता कोइ कुंभारे आवीने कांके ॥ १७१ ॥ राजन्नित्यं वहन् वारि, स्वयं शैले चटत्यसौ । को हेतुरिति भूपोऽपि श्रुत्वा पप्रच्छ तं मुनिम् ॥ १७२ ॥ 'भावार्थ- हे राजन् ! आ गधेदो हमेशां पाणीने वहन करती आ पर्वत उपर पोतानी मेळे चढ़े छे तेनुं शृं कारण हशे ?. राजा पण या वृत्तान्त सांभळी आश्चर्यचकित यह मुनिराजने पूछयुं ।। १७२ ।। -स एव केवली तावत्, तत्रागाद् मुनि- भूपती । तेन कुम्भकुता युक्तौ, नन्तुं तमथ जग्मतुः ॥ १७३ ॥ भावार्थ- ते दरम्यान तेज केवळी भगवान् के जेपणे अयोध्या नगरीमा पर्षदाम को चंद्रादित्यना पूर्वभवनो वृत्तान्त निजे सांभळ्यो हतो, तेओ चित्रपुरी नगरीमां पधार्या. केवली भगवाननुं आगमन सांभळी राजा अने मुनिराज ते कुंभार सहित केवली भगवानने वंदन करवा माटे गया ॥ १७३ ॥ खरस्वरूपं भूपेन, पृष्टः केवल्यथाऽखिलम् । समुद्रसिंह वृतान्त-मुक्त्वा मूलात् पुनर्जगौ ॥ १७४ ॥ ना. च. | ६३। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-ते कंवली भगवानने वंदन करी राजाए गघेडा स्वरूप पूछयु, त्यारे केवली भगवाने समुद्रपाल, | अने सिंहनुं समस्त वृत्तान्त आदिवी अंत मुधी कहूं, अने जेणान्यु के-॥ १७४ ॥ सिंहजीवः सको भुक्त्वा, संसारे घोरवेदनाः। पुरेऽवाल्पकर्मत्वात्, षद्कृत्वोऽथ खरोऽजनि ॥ १७५ ।। भावार्थ-ते सिंहनो जीव संसारमा तीव्र वेदनाओ भोगवी, आज नगरमा अलसकर्मपणाथी छ वार गधेडो || थयो । १७५ ॥ भवे सप्तमके भूत्वा, श्रीन्द्रियोऽसौ ततः पुनः । खरोऽवशिष्टकर्मत्वात्, षद्कृत्वोऽत्र पुरेऽभवत् ॥ १७६ ॥ भावार्थ-त्यार बाद सातमा भवमा तेइंद्रियः थई, अवशेष रहेला कर्मथी पाछो छ वार आज नगरमा गधेडो थयो ॥ १७६ ॥ - सहस्रा बादशाऽनेन, देवद्रव्यं विनाशितम् । तत्कर्मशेषतस्तावत् , कृत्वाऽसावीदृशोऽजनि ॥ १७७ ॥ - - - Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ सिंहना जीवे मारहमार सोनया देवद्रव्यनो विनाश को हतो, ते कर्मनाः शेषथी ते रेटलीवार नीच भवमा उत्तम थयो छे ॥ १७७॥ प्रतिजन्माऽविद्वेऽस्मिन् , कर्मकार्यकृते सदा। चटनाभ्यासतोत्रानो, स्वयमेव चटत्यसौ ॥ १७८ ॥ भावार्थ-दरेक जन्ममा मा पर्वतना शिखर उपर वैतकं करवा माटे हमेशां चटवाना अभ्यासी आ भवमा || पण आ गधेडो पर्यत उपर पोतानी मेळे चरी जाय छे ॥१७८ ॥ भत्वेति पतिस्तस्य, सारार्थ कृपया ददौं। शिक्षा कुम्भकृते सोऽपि, पत्नात्तं पर्यपालयत् ॥ १७९ ॥ भावार्थ---आ प्रमाणे राजाए गपेडातुं वृत्तान्त अषण करी दया आक्वाथी तेनी सारवार माटे कुंभारने | शिखामण आंपी, सारथी कुंभार पण तेनुं सारी रीते पालन करवा लाग्यो. ॥ १७९ ॥ अथासौ भद्रकस्वान्तो, मृत्वा ग्रामे मुरस्थले । ग्रामणीशानुनामाऽभूद्, राज्ञा निवोसितोऽन्यदा ॥ १८ ॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-तदनन्तर भद्रक मनवाको गधेडो मरण पामीने मुरस्थळ गाममां भानु नामनो गामनो मुखी थयो, । त्यां कोइ पण कारणसर राजानो अपराधी बनवाथी एक दिवसे राजाए गाममांयी काही मूक्यो ॥ १८० ।। गडावर्ते स्थितः सोऽथ, वृत्तिलोपमसासहिः। क्रूरकर्माऽर्जितैरेव, द्रव्यैः स्वं निरचीवहत् ॥ १८१ ॥ भावार्थ-राजाए गामायी काढी मुकेलो पानु गंगाने कांठे रहेगा लाग्यो, अने पोतानी चाल आजीविकानो नाश नहीं सहन थवाथी पापयी भरपूर क्रूर कार्योथी पैसा उपार्जन करी ते बड़े पोतानो निर्वाह चलावचा ६६॥ लाग्यो ॥ १८१॥ श्रीशत्रुजयपात्रातो, निवृत्तः कोऽपि वाडयः। पत्नी-पुत्रयुतस्तत्र, रात्रौ प्रामे समेतवान् ॥ १८२॥ ' भावार्थ-एक दिवसे श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा करी पाछो फरेलो कोइ ब्रामण पोतानी स्त्री अने पुत्र सहित ते मुरस्थल गाममा रात्रे आव्यो ॥ १८२॥ भक्तदत्तां गृहीत्वा गां, सोऽन्त्ययामे चलंस्ततः । गो-पत्नी-पुशपुक् लेन, दुष्टेनाऽघाति भानुना ॥ १८३ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भावार्थ-त्यां पोताना कोइ भक्ते आपेल गायने ग्रहण करी ते ब्राह्मणे रात्रिना छेल्ला पहोरने विषे पोताना || | गाम तरफ जवा प्रयाण कयु, तेवामा ते दुष्ट भानुए आवीने गाय, पत्नी अने पुत्र सहित मारी नाख्यो ॥ १८३ ॥ ततः पापी पलाय्याऽगाद्, गङ्गावर्ते यदा तदा । शीतों सायमद्राक्षीत्, कायोत्सर्गस्थितं मुनिम् ॥१८४ ॥ भावार्थ-त्यांथी महारौद्र अध्यवसायी भानु नासीने गंगाने कांठे पोताने स्थाने चाल्यो गयो, गंगाने काठे || च. सायंकाले शियाळानी ठंडी ऋतुमा एक मुनिराजने काउसग्गं ध्याने उभा रहेला जोया ॥१८४ ॥ अहो ! कियचिरं कष्ट-मसावत्र सहिष्यते । इति विस्मयवांस्तस्थौ, तत्र यामचतुष्टयम् ॥ १८५ ॥ • भावार्थ-शियाळानी कडकडती ठंडीमा सायंकाले काउसग्ग ध्याने उभा रहेळा महात्माने जोइ भानु विचार करवा लाग्यो के-'अहो ! आ मुनिराज केटलो वखत आवा प्रकारचं कष्ट सहन करशे?' एम आश्चर्ययुक्त बन्यो छतो त्यांज रात्रिना चार पहोर रहो ॥ १८५॥ प्रातः स पारितोत्सर्गः, प्रणम्याऽप्रच्छि भानुना। किं कार्य प्राज्यराज्येन, यदेवं तपसे तपः? ॥ १८६ ॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ- प्रातः समये सुनिए कावसम्म पार्यो, त्यारे भानुएं नमस्कार करीने पूछयूँ के - 'महाराज ! शुं तमारे कोइ मोटुं राज्य मेळ छे के जेंवी आदी घोर अने असा तपश्चर्या करो छ ? ' ॥ ९८६ ॥ मुनिः प्रोचे न राज्येन, कार्य नरकहेतुना । किन्तु मोक्षकृते सर्व-साधुभिस्तप्यते तपः ॥ १८७ ॥ भावार्थ - मुनिए जवाब आप्यो के ' नरकगति प्राप्त यवांना कारणभूत राज्यनुं सारे कांई पण काम नथी, परंतु सर्वे साधुओ मोक्ष मेळववा माटे तपश्चर्या करे छे ।। १८७ ।। को मोक्ष इति तेनापि, पृष्टः साधुरभाषत । संसार - मोक्षयोक्तं स्वरूपं बहुयुक्तिभिः ॥ १८८ ॥ भावार्थ- मानुए पूछ के - 'मोक्ष एटले शुं ?" त्यारे मुनिराजे तेने संसार अने मोक्षनुं स्पष्ट स्वरूप पगीज युक्तिपूर्वक समजान् ॥ १८८ ॥ असौ जन्मजरामृत्यु- मुख्यक्लेश सहस्रभूः । चतुर्गतिक संसारः, कस्य स्यान्न विरक्तये ? ॥ १८९ ॥ ना. च. १६८ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-वळी जणायु के-जन्म, जरा अने मृत्यु विगेरे हजारो दुःखथी गहन बनेका चार गतिरूप आ || संसारथी कोने वैराग्य न थाय? ॥ १८९ ।। ___ शाश्वताऽनन्तसौल्यश्री-निवासं वासवा अपि। . स्वर्गसौल्यमनाहत्य, याचन्ते मोक्षमुत्तमम् ॥ १९॥ भावार्ष-शाश्वता अने अनंता मुखरूप लक्ष्मी निवास स्थान मोक्ष के, मा मोजमुख पासे स्वर्गसुख पण | च. तुच्छ छ, भने तेथीज इन्द्रो पण स्वर्गमुखनो अनादर करी आका अनुपम मोलने माटे याचना करी रह्या छे ॥१९॥ परं स प्राप्यते प्रायः, कृतैः सुकृतकर्मभिः मुख्यं तेष्वपि सर्वज्ञः, सर्वसत्त्वकृपोच्यते ॥ १९॥ भावार्थ-इंद्रो पण जेनी पासे पोतानु स्वर्गमुख तुच्छ समर्जी जेने माटे तळसी रमा छे एचो उत्तमोत्तम मोक्ष प्रायः सुकृत कर्पो वहे जीवो मान करे छे. ते मुकृतकोमा. पण सर्व भीको उपर करुणाभाव राखवो ए मुख्य मुकृतकर्म सर्वशोए. कडुं छे ॥ १९११ कृपाधिकारे जीवानां, हिंसा हिंसाफलं तथा। उपादिष्टं यथा भानु-श्चकम्पे निजफापकैः ।। १९२ ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ प्रमाणे ज़ीक्दयाना अधिकारमा प्राणीओने हिंसा करवाथी केवां माठां फळ भोगवां पडे छे, अने दया राखवायी केवां अनुपम मुख भोगवे छे ते सर्वन एवं स्पष्ट स्वरूप ते मुनिराजे समजाव्यु के जेथी भानु पोताना करेला पापयी कंपवा लाग्यो ॥ १९२ ॥ यावज्जीवमथादाय, हिंसानियममुत्तमम् । साधु स्वाऽवसथे नीत्वा, शुद्धान्नैः प्रत्यलाभयत् ॥ १९३ ॥ भावार्थ-हवे ते मुनिराज पासे जींदगी पर्यंत हिंसाना उत्तम नियमने ग्रहण करी, साधु महाराजने पोताने ||1७०। घेर लइ जइ शुद्ध अन्नयी प्रतिलाभ्या ॥ १९३ ॥ एवं तेनार्जितं भोग-फलं कर्म ततोऽनिशम् । कृपावान् पूज्यते लोका-दाप्तस्वो जीविकां व्यधात् ॥ १९४ ।। . भावार्थ-आ प्रमाणे तेणे अहिंसावत ग्रहण करवायी अने मुनिराजने भावपूर्वक वहोराववाथी भोगरूपी फळ आपनारुं शुभ कर्प उपार्जन कयु. त्यारं पछी निरंतर दयावाळो ते लोकोमा माननीय थयो, अने लोको पासेथी शुद्ध नीतिपूर्वक द्रव्य मेळवी पोतानी आजीविका चलाववा लाग्यो ॥ १९४ ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रान्ते मृत्वा दानपुण्याद, राजन् ! राजा भवानभूत् । शुइंजीवदयापुण्याद् , रूपनिर्जितमन्मथः ॥ १९५ ।। भावार्थ-हे राजन् ! आयुष्य पूर्ण यता भानु मरण पामी, मुनिराजने दान आपवाना पुण्ययी नाभाक. नामनो तु गजा थयो छे, अने शुद्ध जीवदया पाळी उपार्जन करेला पुण्यथी कामदेव करतां पण तने अधिक रूप प्राप्त थयु छे ॥ १९५ ॥ चन्द्रादित्योऽपि सम्पूर्ण-निर्मापितजिनालयः। ॥७ प्रायश्चित्तेन शुद्धात्मा, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ॥ १९६ ॥ भावार्थ-पूर्वभवमां देवव्यनो विनाश करवायी कोढियो ययेको चित्रपुरी नगरीनो राजा चन्द्रादित्य के जे मुनिराजना उपदेशथी परमेष्ठी महामंत्रनुं ध्यान करी छ मासमा कांचन जेवी कातिवाळो थयो हतो, तेणे । चित्रकूट पर्वतना शिखर उपर आरंभेल जिनालय संपूर्ण कराव्यु. आवी रीते प्रायश्चित्त करी शुदात्मा थयेलो ते मरण पामी सौधर्म देवलोकमां देव ययो ॥ १९६ ॥ त्वं तत्रैव भवे मूर्त-पुण्यवजिनमन्दिरम् । पातयित्वा पुरस्याऽस्य, परितो दुर्गमातनोः ॥ १९७ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भावार्ष-हे नामाकराजा! तुं भानुना भवमा मुरस्थल गाममा मुखी हतो तेज भवमा ते साक्षात् पुण्यस्वरूप || जिनमंदिरने पाडी नाखी गायनी चारे पाजु किल्लो बनान्यो हतो ॥ १९७ ॥ भूपैवं तत्र विप्रस्त्री-भ्रूणगोतीर्थघातिनः । पञ्च हत्या इमाः सर्वाः, पुण्यविघ्ननिषन्धनम् ॥ १९८ ॥ भावार्थ-हे राजन् ! आ प्रमाणे भानुना भवमा ते विप्रघात, स्त्रीघात, पालपात, गौघात अने तीर्थघात | आवी रीते पांच पोटी हत्याओ करी हती, आ सर्व हत्याओं तने आ भवां पुण्यनुं विघ्न यवानुं कारणभूत ||७२॥ थयेली छे ॥ १९८॥ तत्रापि यागाविघ्नस्य, तीर्थहत्यैव कारणम्। . अतस्तदपनोदाय, प्रायश्चित्तमिदं शृणु ॥ १९९।।. . भावार्थ-तेश्रोमां पण तूने मुंजयनी यात्रा आवी पडेला विघ्ननु कारण तो तीर्थहत्याज छ, तेथी तेने दूर करवा माटे आ प्रकारे प्रायश्चित्त सांभळ ॥ १९९ ॥ तपोऽमृदु वार्षिकं मूल-मादिदेवस्य वारके। अष्टमास्यधुना भावि-वारे पाण्मासिकं ततः ॥ २० ॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भावार्थ-तीर्थकर श्रीआंदीश्वर प्रभुना वारामा मूळ बार मासी तप हतो, अत्यारे आठ मासी तप छे, अने | भाविकाळमा छ मासी तप थशे ॥ २०॥ सर्वोत्कृष्टं तपः प्राय-श्चित्तमेतदुदीरितम् । विशेषस्तु तीर्थहत्या-कृतां तीर्थविधापनम् ॥ २०१॥ भावार्थ-सर्वथी उत्कृष्ट प्रायश्चित्त उपर जणावेल तप कह्यो छे, विशेष एटलो के-तीर्थहत्या करनाराओए तीर्थनी स्थापना करवी जोइए ॥ २०१॥ विशिष्टाभिग्रहाः प्रोक्तं, प्रायश्चित्तं चरन्ति ये। शत्रुज्जयादितीर्थेषु, ते मुच्यन्तेऽखिलैनसा ॥ २०२॥ भावार्थ-जेओ उपर कहेलं प्रायश्चित्त विशिष्ट प्रकारना अभिग्रहो लइ शत्रुजयादि तीर्थोमा जइ आचरे छे, तेओ समग्र पापथी मुक्त थाय छे ॥ २०२ ।। इति श्रुत्वा नृपो दुर्ग-प्रवेशनियम ललौ। आकार्य सर्वलोकं च, तत्रैवाऽतिष्ठिपत् पुरम् ॥ २०३ ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ प्रमाणे श्रीयुगंधरसूरिनो उपदेश सांभळी तेज वखते नाभाकराजाए किल्लामा प्रवेश करवानो || नियम ग्रहण कर्यो, अने सर्व प्रजावर्गने बोलावी त्यांज नगर वसाव्युं ॥ २०३ स्थापयित्वा गुरूंस्तत्र, जग्राहाऽभिग्रहानिति । यावद्यानां विधायाऽत्रा-यामि तावत् क्षितौ शये ॥ २०४॥ अब्रह्म दधि-दुग्धे च, वर्जयामि क्रमादिदम् । तीर्थ ब्रह्मा-ऽपत्यहत्या-शुद्धयै भेऽभिग्रहत्रिकम् ॥ २०५ ॥ परस्त्री मांस-मद्ये च, यावज्जीवमतः परम् । त्यक्तानि नियमा एते, स्त्री गोहत्याविमुक्तये ॥ २०६॥ त्रिभिर्विशेषकम् । भावार्थ-गुरुमहाराजने पण त्यांज राखी तेश्रोधी पासे नामाकराजाए आ प्रमाणे अभिग्रहो ग्रहण कर्याज्यां सुधीमां हुं श्रीशत्रुजय तीर्थनी यात्रा करी पाछो अहीं आq त्यां सुधी पृथ्वी पर शयन करीश, तीर्थहत्यानी शुद्धि माटे यात्रा करीने पाछो आq त्यां सुधीमां मैथुननो त्याग करूं छु, ब्राह्मण हत्यानी शुद्धि माटे दहींनो त्याग करुं छु, अने बालहत्यानी शुद्धि माटे दृधनो त्याग करूं छु, स्त्रीहत्या अने गौहत्यानी शुद्धि माटे यावज्जीव परस्त्री मांस अने मद्यनो त्याग करु छै ॥ २०४-२०५-२०६॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %3 . नियोज्य स्वजनान्नव्य-प्रासादार्थे गुरोगिरा । एकान्तरोपवासैः सो-ऽष्टमासीतप आदे ॥ २०७ ।। भावार्थ-त्यार पछी गुरुमहाराजना उपदेशथी नवीन देरासर बंधाववा माटे पोताना माणसोने आज्ञा करी एकांतरे उपवास करवा पूर्वक तेणे अष्टमासी तप शरु कर्यो । २०७॥ - सिद्धि गतेऽथ प्रासादे-ऽष्टभिर्मासैः स काश्चनाम् । श्रीआदिदेवप्रतिमां, स्थापयामास सोत्सवम् ॥ २०८ ॥ 'भावार्थ-आठ महिने देरासर पूर्ण थयुं त्यारे नामाकराजाए ते देरासरमा म्होटा उत्सव पूर्वक श्रीऋषभदेव प्रभुनी सुवर्णमय प्रतिमा प्रतिष्ठित करावी ॥ २०८ ॥ __तत्र त्रिकालं सर्वज्ञ-मर्चयन् विधिवन्नृपः। .. मासाष्टकेन सम्पूर्णी-चक्रे शेषतपोऽखिलम् ॥ २०९॥ भावार्थ-पोते बंधावेला नवीन देरासरमा प्रतिष्ठित करावेली श्रीऋपभदेव सर्वानी प्रतिमानी हमेशां त्रण काळ विधियुक्त पूजा करता नामाकराजाए आठ महिने बाकीनो तप पूरी कर्यो । २०९ ॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थहत्याविनिर्मुक्तः, शुभेऽह्नि भरतेशवत् । श्रीशत्रुज्जययात्रार्थे, चचाल गुरुभिः सह ॥ २१० ॥ भावार्थ - आ प्रमाणे अष्टमासी तप करवायी अने नवीन देरासर बंधाववाथी तीर्थहत्याना पापथी मुक्त थयेल ते नाभाकराजाए शुभ दिवसे चक्रवर्ती भरतेश्वर महाराजानी पेठे श्रीशत्रुंजय तीर्थनी यात्रा निमित्तै गुरु महाराज साधे त्यांथी प्रयाण कर्यु ॥ २१० ॥ चतुर्घाऽऽद्यप्रयाणेषु, मार्जारीषु पदोपरि । समुत्तीर्णासु तद्धेतुं पृष्टाः श्रीगुरवोऽवदन् ॥ २११ ॥ भावार्थ - श्रीशत्रुंजयनी यात्रा माटे नाभाक राजा प्रयाण करतो हतो तेवामां शरुआतमां ज चार बिलाडी तेना पग आगळ थइने चाली गई. राजाए गुरुमहाराजने तेनुं कारण पूछयुं, त्यारे गुरुमहाराजे कर्छु के- ।। २११ ॥ बालादित्याः स्वं भावं, पुण्यप्रत्यूहहेतवे । दर्शयन्ति परं सिद्धि - ध्रुवं स्यादेकचेतसः ॥ २१२ ॥ भावार्थ - " हे राजन् ! तें जे पूर्वे भानुना भवमां बालहत्यादि हत्याओ करी हती ते पापो पुण्यकार्यमां --- ना. च. १७६ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || विघ्न करवा माटे पोतानो भाव भजवे छे, पण पुण्यकार्यमा प्रवृत्त थयेल दृढ चित्तवाळो खरेखर पोताना 'कार्यमा || फत्तेह मेळवे छे" ॥ २१२॥ मत्वैवमेकचित्तः स-नादिदेवस्मृतौ नृपः। उपशत्रुञ्जयं प्रापा-ऽनवच्छिन्नप्रयाणकैः ॥ २१३ ।। भावार्थ-आ प्रमाणे गुरु महाराजनुं वचन हृदयमां सद्दहीने श्रीमान् आदीश्वर प्रभुना ध्यानमा एकाग्र मन- || च. वालो नाभाक राजा अस्खलित प्रयाणथी श्रीशत्रुजय पर्वत पासे पहोंच्यो ॥ २१३ ॥ दृग्विषयं तीर्थे प्राप्ते, निजसैन्यं निवेश्य सः ।। शुचिर्भूत्वाऽभितीर्थ च, पदानि कतिचिद्ददौ ॥ २१४ ॥ सिंहासनेऽथ न्यस्याऽहंद्-बिम्बं सकलसङ्घयुक् । स्नपयित्वा ततः सर्व-पूजाभेदैरपूजयत् ॥ २१५ ॥ भावार्थ-श्रीशत्रुजय तीर्थ दृष्टिए पडयु के तुर्त पोताना सैन्यने त्यांज स्थापन करी, शरीरे पवित्र थइ, तीर्थ सन्मुख केटलाएक डगला आगळ जइ, सर्व संघ सहित सिंहासन पर अरिहंत प्रभुनी प्रतिमा पधरावीने ते प्रतिमानी पखाल करी पूजानी सर्व सामग्री वडे विधिपुरःसर पूजा करी ॥ २१४-२१५ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णरूप्ययवै रत्न-स्थालेऽथो मङ्गलाष्टकम् । आलिख्याऽष्टोत्तरशत-वृत्तैः सानन्दमस्तवीत् ॥ २१६ ॥ भावार्थ-त्यार बाद रत्नना थाळमां सर्ण अने रूपाना जबोथी आठ मंगल आलेखीने हृदयना उल्लासथी | एकसो आठ श्लोको वडे भावपूर्वक प्रभुनी स्तुति करी ॥ २१६ ॥ शक्रस्तवेन वन्दित्वा, सिद्धादि चाऽथ सद्गुरून् । नत्वा स्वर्णमणिरत्न-मुक्ताभिस्तानवीवधत् ॥ २१७ ।। भावार्थ-त्यार बाद नमुत्थुणं वडे सिद्धाचलने वांदी, गुरु महाराजने नमन करी ते गोने स्वर्ण, मणि, रत्न अने मोती वडे वधाव्या ॥२१७ ॥ .. । दत्त्वा यथेच्छमर्थिभ्यो, दानं मिष्टान्न भोजनैः। अतूतुषत् सर्वलोकान् , धार्मिकांश्च विशेषतः ॥ २१८ ॥ भावार्थ-याचक जनोने इच्छित दान आप्युं, तेमन मिष्टान्न भोजन बड़े सर्व लोकोने संतुष्ट कर्या, तेमां || पण धार्मिक पुरुषोनी तो विशेष प्रकारे आदर सत्कार पूर्वक भक्ति करी तेओने संतोष उपजाव्यो ।। २१८ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततोऽतिक्रान्तशेषाऽध्वा, पुरस्कृत्य गुरुं नृपः । रेजे चटन् गिरिं मुक्त्यै, प्रस्थानं साधयन्निव ॥ २१९ ॥ भावार्थ-त्यार पछी बाकीनो मार्ग उल्लंघन करी गुरुमहाराजने आगळ करी जाणे मुक्तिने माटे प्रस्थान || साधतो होयनी! तेवी रीते शत्रुजय उपर चड़तो राजा शोभवा लाग्यो ॥ २१९ ॥ प्रासाददर्शने पूर्व-मपूर्वोत्सवपूर्वकम् ।। याचकेभ्यो द्दानं, कल्पवृक्षायते स्म सः ॥ २२ ॥ भावार्थ-पहा पवित्र तीर्थ श्रीशत्रुजय उपर चडतां प्रथम श्रीआदीश्वर प्रभुना देरासर दर्शन यतांज अपूर्व । उत्सव पूर्वक याचकोने दान आपतो ते नामाक राजा साक्षात् कल्पवृक्ष समान देखावा लाग्यो ।। २२० । स्नात्रपूजाध्वजारोपा-मारिस्नानाशनादिकम् । सर्व सङ्घपतेधर्म-कर्माऽष्टाहमपि व्यधात् ॥ २२१ ॥ भावार्थ-ते नाभाक राजाए अट्ठाइ महोत्सव करी आठे दिवस स्नात्रपूजा, ध्वजारोपण, अमारिपडह, स्नान, स्वामिवात्सल्य विगेरे संघपतिनां धर्म कार्यो कर्या ॥ २२१ ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थसेवाचिकीर्भूमा - नापृच्छयाऽथ विधिं गुरून् । धर्मध्याकलीनात्मा, त्रिकालं पूजयन् जिनम् ॥ २२२ ॥ अहोरात्रं पवित्राङ्गो, महामन्त्रमसौ स्मरन् । साधून साधर्मिकांचाsपि, प्रतिपारणकं स्वयम् ॥ २२३ ॥ सत्कारयन् यथायोग्यं, भक्तपानैर्यथोचितैः । मासेन दश षष्ठानि, निरम्भांसि वितेनिवन् ॥ २२४ ॥ त्रिभिर्विशेषकम् । भावार्थ - तीर्थसेवा करवानी इच्छा राखनार नाभाक नृपे गुरु महाराजने विधि पूछी, धर्मध्यानमां लीन आत्मावाळो थइ, त्रणे काल अरिहंत प्रभुनी पूजा करता, पवित्र अंगवाळो थइ रात्रि - दिवस परमेष्ठी महामंत्रनुं स्मरण करता, दरेक पारणाना दिवसे साधुओने अने साधर्मिक बंधुओने यथायोग्य उचित भोजन - पानथी सत्कार करता एक मासमां दस छडनी तपश्चर्या पाणी बिना करी ।। २२२-२२३-२२४ ॥ दिने त्रिंशत्तमे ब्राह्म मुहूर्ते तेन वीक्षिताः । चतस्रः पदिकामात्रा, मार्जार्यः कर्बुराः पुरा ॥ २२५ ॥ at. च. ४०१ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-ते राजाए त्रीशमे दिवसे ब्राह्म मुहूर्तमा पोतानी आगळ पगला मात्र प्रमाणवाळी चार काबरा वर्ण-|| नी विलाडी जोइ ॥ २२५ ॥ ब्रह्मादिहत्या एतास्ताः, क्षीयन्ते तपसो बलात् । अनुमीयेति स प्राग्वद्, विधेऽथाऽष्टमाष्टकम् ॥ २२६॥ भावार्थ-" में पूर्व भानुना भवमा करेली ब्रामण विगैरेनी हत्याओं तपस्याना प्रभावथी क्षीण यती जाय || च. छे" ए प्रमाणे पूर्वनी जेम अनुमान करी आठ अठ्ठम कर्या ॥ २२६॥ तदन्ते कालमात्रास्ता, वीक्षिता धूसराः पुनः । मत्वा तथैव ताः प्राग्व-चकार दशमानि षद् ॥ २२७ ॥ भावार्थ-आठ अठमने छेडे ब्रान मुहूर्तमां कोयलना परिमाणवाळी धूसर वर्णनी चार बिलाडी जोइ, त्यारे पण पूर्वनी जेम 'ब्रह्महत्यादि हत्याओ क्षरण थती जाय छे' ए प्रमाणे मानी नाभाक राजाए. छ चारउपवास कर्या ॥ २२७॥ तत्प्रान्ते मूषिकामात्रा, दृष्टास्ता धवलाः पुनः। ततो विशेषतो हृष्ट-श्वके द्वादशपञ्चकम् ॥ २२८॥ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-छ चारउपासनी तपश्चर्याने छेडे उंदरना प्रमाण जेटली चार धोळी बिलाडी जे इ, तेथी विशेष | || हर्षित थयेला नाभाक राजाए पांच पांच उपवास कर्या ॥ २२८ ॥ ईषनिद्रान्तरेकोन-त्रिंशत्तमदिने ततः। ... नमस्कारान् स्मरन्नेक, स्वप्नमेवमलोकत ॥ २२९ ॥ भावार्थ-त्यार बाद ओगणत्रीशा दिवसे नमस्कारनुं स्मरण करता करता ज थोडी निद्रा लीधी. निद्रामा ||१८२॥ एवं स्वप्न जोयुं के-॥ २२९ ॥ क्वाऽपि स्फटिकशैलेऽहं, सोपाने प्रथमे स्थितः। केनाप्यतीववृद्धन, कृशेन लोठितः परम् ॥ २३० ॥ प्राप्तो द्वितीयसोपानं, तृतीयं च गतस्ततः । शैलशृङ्गमथारुह्य, मुक्तराशौ निविष्टवान् ॥ २३१ ॥ युग्मम् । ।। भावार्थ-"हूं कोइ स्फटिक पर्वत उपर पहेले पगथीये चड्यो हतो, तेषामां कोइ एक कृश अने अत्यंत वृद्ध Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुषेधको मारी बढायो, परंतु नीचे जवाने बदले उलटो बीजे पगथीये प्राप्त थयो, त्यार पछी बीजे पगथीये चढ्यो, कमसर पर्वतना शिखर उपर चड़ी छेवडे मुक्तिमां जइ बेठो " ।। २३०-२३१ ॥ प्रभो ! फलं किमस्येति, पृष्टाः श्रीगुरवो जगुः । स्फटिकाद्रिर्जिनधर्मः, सोपानं मानुषो भवः ॥ २३२ ॥ च. भावार्थ- - आ प्रमाणे आश्चर्यकारी स्वप्न जोइ जागृत थयेला नामाक राजाए प्रातःकाले मुनिराजने पूछ के -' प्रभो ! आ स्वप्यनुं फळ शुं ? ' त्यारे गुरुमहाराजे कछु के-" जे तुं स्फटिक पर्वत उपर चड्यो ते जिनधर्म ||८३३ जाणवो, ते पर्वतना पहेला पगथीया रूप मनुष्य जन्म समजवो ॥ २३२ ॥ अतो धर्माच्च यत्नेनाऽन्तरायस्वल्पकर्मणा । पात्यमानोऽपि सत्त्वेना - ऽच्युतस्त्वं स्वर्गमिष्यसि ॥ २३३ ॥ ना. भावार्थ - आ जिनधर्म रूपीं स्फटिक पर्वतना पहेला पगथीयाथी अंतराय रूपी स्वल्प कर्म वडे गडावातो छतां सत्र वढे दृढ रहेलो तुं पतित नहीं थयो छतो देवलोक रूपी बीजे जइ ॥ २३३ ॥ पगथी ये Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानं तृतीयसोपानं, नृभवेऽवाप्य केवलम् । सर्वकर्मविनिर्मुक्तो, मुक्तराशी निवेक्ष्यसि ॥ २३४ ॥ भावार्थ--देवलोकमांथी च्यवी मनुष्यभवमा आवेलो तुं सर्व कर्मोथी रहित थयो छतो श्रीजा पगयीया रूप || ना. केवलज्ञान पामी मोक्षराशिमा प्रवेश करीश ॥ २३४ ॥ परं तत् प्राक्तनं कर्म, च्छमस्थत्वान्न बुध्यते । अतः पृच्छ विदेहेषु, श्रीमत्सीमन्धरं जिनम् ॥ २३५॥ १८४। भावार्थ-परंतु हुं छमस्थ होवाथी तें पूर्वे करेलु ते अन्तराय कर्म जाणी शकतो नथी, माटे महाविदेह क्षेत्रमा विराजमान श्रीसीमंधर प्रभुने पूछ " ॥ २३५ ॥.. प्राप्नोमीहक्कथं राज्ञे-त्युक्ते श्रीगुरवोऽवदन् । भवत्पुण्यप्रभावेण, भवितेत्यचिरादपि ॥ २३६ ॥ ___भावार्थ-नाभाक राजाए पूछ्यु के-'श्रीसीमंधर स्वामी पासे केवी रीते जवाय ?'. त्यारे गुरुमहाराज || || बोल्या के-'तमारा पुण्यना प्रभावथी थोडाज वखतमा तमारे त्यां जवानुं थशे' ॥ २३६ ॥ . Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतद्विशेषलाभाया-दिदिशे गुरुणा तदा । अन्यथा केवलिप्रश्नात्, पूर्वविद् बुध्यतेऽखिलम् ॥ २३७ ॥ भावार्थ-ते वखते नाभाक राजाना विशेष लाभ माटे युगंबरमूरिए उपर प्रमाणे कां, नहींतर चौद || ना. पूर्वना जाणकार तो केवली भगवानने पूछवाथी सर्व वात जाणी शके छ ॥ २३७ ॥ अथाऽन्तरायविच्छित्त्यै, पारणाहेऽप्युपोषितः । ईषन्निद्रां गतो याव-जागर्ति स निशात्यये ॥ २३८ ॥ तावद्वीक्ष्य महारण्ये, पतितं स्वं व्यचिन्तयत् । हा हा ! कथं स एवाऽय-मन्तरायः समापतत् ॥ २३९ ॥ युग्मम् । भावार्थ-त्यार बाद अंतराय कर्मनो विच्छेद करवा माटे राजाए पारणाने दिवसे पण उपवास कर्यो, अने धर्मध्याम पूर्वक रात्रे सूइ गयो. थोडी निद्रा करी रात्रिना छेल्ले पहोरे जेवामा जागे छे तेवामा पोताने एक मोटी विकट अटवीमां पडेलो जोइ विचारवा लाग्यो के-अरेरे! शुं मने गुरु महाराजे जे अंतराय कर्म कर्दा हतुं तेज उदय गं आवी पडयुं ? ॥ २३८-२३९ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथवाऽलं विषादेन, श्रीशत्रुञ्जयनायकम् । नत्वा श्रीऋषभदेव-मादास्ये भक्तपानकम् ॥ २४० ॥ भावार्थ-अथवा विशेष खेद करवाथी शुं वळवार्नु छ ?. श्रीशQजय तीर्थना अधिराज भगवान् श्रीआदीश्वर : | ना. प्रभुने वंदन कर्या बाद हुँ भोजन अने जल वापरीश ॥ २४०॥ निश्चित्येत्यनुपानत्कः, क्षरद्रक्ताकुल क्रमः । तपाक्रान्तस्तृषाक्लान्तः, परिश्रान्तः क्षुधार्दितः ॥ २४१॥ मध्याहातपसंतप्त-वालुकाभिः पथि ज्वलन् । अनिर्विण्णमना देव-ध्यानादेव चचाल सः ।। २४२॥ युग्मम् । भावार्थ-आ प्रमाणे पोते दृढता पूर्वक नियम ग्रहण करी, पगरखा रहित होवाथी अटवीमां चालतां लोहीथी खरडायेल पगवाळो, तडकाथी आकुल बनेलो, तृपाथी शरीरे ग्लानि पामेलो, चालता चालता थाकी गयेलो, भूखथी पीडायेलो, अने खरा बपोरना तडकाथी तपी गयेली रेती वडे पगे रस्तामां बळतो छतो पण चित्तमा जरा पण खेद नहीं लावतो ते धैर्यवान् नाभाक राजा आदीश्वर प्रभुनुं ध्यान धरतो थको आगल चालवा लाग्यो ॥ २४१-२४२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराह्ने पुरः क्वापि, कयाचिन्ननिस्त्रिया । ढौकितं न फलमादत्, सत्त्वान्नाऽपि पयः पपौ ॥ २४३ ॥ ना. भावार्थ- -राजा अगाडी चाल्यो जायछे तेवामां बपोर पछीना समयमां कोइक नवीन स्त्रीए आवी तेनी सन्मुख सुंदर फळ तथा शीतल जळ मूक्युं, पण तेने श्रीआदीश्वर प्रभुनुं दर्शन कर्या सिवाय कांइ पण वस्तु खावा - नो तथा जल पीवानो दृढ नियम होवाथी सत्त्वशाळी ते महापुरुषे फळ खाधुं नहीं तेम जळ पण पीधुं नहीं ॥ २४३ ॥ तया सह महः स्तोम - व्योमव्यापिनि मन्दिरे । आश्चर्य परिपूर्णान्तः, स्वच्छेन मनसा ययौ ॥ २४४ ॥ भावार्थ-त्यार बाद आश्रर्यथी पूर्ण बनेका हृदयवाळो नाभाक आकाशमां व्यापी रहेला तेजना झळहळाट वाळा एक मलमां ते स्त्री साथै स्वच्छ चित्ते गयो ॥ २४४ ॥ स तत्र चित्रकृद्रपाः, सारशृङ्गारहारिणीः । हरिणाक्षीर्निरैक्षिष्ट, विलसन्तीः सहस्रशः ॥ २४५ ॥ भावार्थ- पोताने अपरिचित ते नूतन प्रासादम नाभाक राजाए आर्य उत्पादक स्वरूपवाळी, उत्कट शृंगारथी चित्तने आकर्षण करनारी, मनोहर विलास करती हजारो सुंदरीओने जोइ ॥ २४५ ॥ च. ८७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तासां मध्यादथोत्थाय, स्वामिनी हंसगामिनी । योजिताञ्जलिरभ्येत्य, सानुरागमदोऽवदत् ॥ २४६॥ भावार्थ-ते मनहरणी सुंदरीओमाथी तेओनी स्वामिनी एक अग्रेसर स्त्री ऊठीने इंसनी जेवी मंद मंद गति || ना. करती नाभाक राजा पासे आवी, अने बे हाथ जोडी प्रेमपूर्वक बोली के-॥ २४६ ॥ अस्मदीयेन भाग्येन, समेतोऽसि गुणोदधे ।। स्त्रीणां राज्यमिदं विद्धि, योऽति पतिरेव नः ॥२४७॥ __ भावार्थ-" हे गुणसमुद्र ! तमे अमारा भाग्यथीज अहीं पधार्या छो, आ स्त्रीओ राज्य छे, अने जे अहीं आवे छे तेने अमे पति तरीकेज मानीए छीए" ॥ २४७ ॥ श्रुत्वेति नृपतिर्दध्यौ, सङ्कटान्तरमागतम् । मौनमेवाऽत्र मे श्रेयो, मौनं सर्वार्थसाधनम् ॥ २४८ ॥ भावार्थ-आ प्रमाणे स्नेह सहित प्रेमाळ वचनविलास सांभळी राजा विचारवा लाग्यो के-" आ वळी | मारे माथे बीजुं संकट आवी पडयुं !. 'इतो व्याघ्र इतस्तटी' ए न्याय प्रमाणे हुं पण अहीं सपडायो छु. हवे || Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || आवा प्रसंगै मारे मौन धारण करवू एज सर्वथा श्रेयस्कर छे, कारण के-मौन ए सर्व इच्छित वस्तुनुं साधन || छे" ॥२४८॥ इति तूष्णी स्थिते भूपे, मुख्यादिष्टाः स्त्रियोऽपि ताः। स्नानभोजनसामग्री, सज्जीकृत्योपतस्थिरे ॥ २४९ ॥ भावार्थ-आ प्रमाणे ज्यारे राजाए मौन धारण करी काइ पण उत्तर आप्यो नहीं त्यारे ते मुख्य स्वामि- | च. नीए हुकम कराएल बीजी सुंदरीओ स्नान अने भोजननी सामग्री तैयार करी राजानी समक्ष लावीने उपस्थित थइ. अने कयु के-॥ २४९ ॥ . प्रसद्य सद्यः प्राणेश!, स्नात्वा भुक्त्वा यथारुचि। यावजीवं सहाऽस्माभि-भोगान् शुक्ष्वाऽकुतोभयः ॥ २५० ॥ भावार्थ-" हे प्राणेश ! अमारा उपर जलदी कृपादृष्टि करी, यथारुचि स्नान अने भोजन करी अमारी साये जींदगी पर्यंत भोग भोगवो, अहीं तमारे कोइ पण तरफथी काइ पण भय राखतो नहीं" ॥ २५० ॥ एवं वदन्त्यः शीताम्भः, सिता-द्राक्षाम्भसी अपि । सिताघृतपुरस्निग्ध-पायसादि च तत्पुरः ॥२५१ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ना. प्रदर्य चाटुभिर्वाक्य-रुपसर्गाननेकशः। पूर्व कृत्वाऽनुकूलांस्ताः, प्रतिकूलानपि व्यधुः ॥ २५२ ॥ युग्मम् । भावार्थ-आ प्रमाणे बोलती छती ते मन हरणी सुंदरीओए नाभाक राजा आगळ शीतल अने सुवासित जल, साकर अने द्राक्षानुं पाणी, घी अने साकर नाखी स्वादिष्ट बनावेला: दूधपाक विगेरे मिष्टान || देखादी मीठा मीठां प्रीतिपूर्वक वचनो वडे पहेला तो अनेक अनुकूल उपसर्गो कर्या, अने त्यार पछी अनेक || च. प्रतिकूल उपसर्गो करवा मांड्या ॥ २५१-२५२ ॥ . तथाप्यक्षुब्धचेताः स, धर्मे यावदवस्थितः। __श्रीशत्रुञ्जयशृङ्गस्थं, तावदात्मानमैक्षत ॥ २५३ ॥ भावार्थ-ते स्त्रीओए अनेक अनुकूल अने प्रतिकूल उपसर्गो करवा छतां पण ज्यारे अस्खलित चित्तवाळो नाभाक जरा मात्र नहीं डगतां धर्म ध्यानमा ज लीन रह्यो, तेवामां पोताने श्रीशत्रुजय पर्वतना शिखर उपर रहेल जोयो ॥ २५३ ॥ अहो! किमेतदित्येवं, साश्चर्ये नृपपुङ्गवे । सौरभ्याकृष्टभृङ्गालिः, पुष्पवृष्टिर्दिवोऽपतत् ॥ २५४ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ना. भावार्थ-'अहो ! आ ते शुं स्वप्न छे के साचो बनाव छ ?' ए प्रमाणे आश्चर्यमां गरकाव बनेलो नृपवर || विचार करे छे तेवामां आकाशमाथी सुगंधीने लीधे खेंचाइ आवेला भमराओनी पंक्तिथी व्याप्त वनेला पुष्पोनी दृष्टि पडी ॥२५४॥ पुरः सुरः स्फुरत्कान्तिः, कश्चित् काञ्चनकुण्डलः। .. प्रादुर्भूयेत्यभाषिष्ट, कुर्वन् जयजयारवम् ॥ २५५ ॥ भावार्थ-तथा तेनी सन्मुख सुवर्णना कुंडल धारण करनार देदीप्यमान कातिवाला अने 'जय जय' शब्द || करता कोइक देवे प्रगट थइने कयु के-॥२५५ ॥ . तव प्रशंसां सद्धर्मन् !, सौधर्मस्वामिनिर्मिताम् । असासहिरहं सर्व-मकार्षमिदमीदृशम् ॥ २५६ ॥ भावार्थ-" हे धार्मिक शिरोमणे ! देवलोकमां सौधर्मेन्द्रे करेली तमारी प्रशंसा सहन नहीं थवाथी तमारी ! परीक्षा माटे में आवं सर्व कार्य कर्यु छ ॥ २५६ ॥ तत् क्षमस्व महाभाग !, यदेवं क्लेशितो भवान् । तुष्टोऽस्मि तव सत्त्वेन, वरं वृणु वरं वृणु ॥ २५७ ।। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-हे महाभाग्यशाली! जे में तमने दुःख आप्युं तेनी क्षमा करो, हुं तमारा सत्त्वधी संतुष्ट थयो || छु, माटे जे तमारे जोइए ते वरदान मागी ल्यो ॥ २५७ ॥ राजाऽवोचन्न याचेऽह-माप्तधर्मधनः परम् । परं सीमन्धरस्वामि-निनंसां मम पूरय ॥ २५८ ॥ भावार्थ-राजाए कधु के-" में धर्मरूपी अखूट खजानो प्राप्त करेलो होवाथी मारे मागवानुं कांइ रघु नयी, || च. पण मारे श्रीसीमंधर स्वामीने वंदन करवानी इच्छा छे ते पूर्ण कराव ॥ २५८ ॥ अथो देव-गुरुन्नत्वा, सत्त्वाधिकशिरोमणिः। नाकिक्लप्तविमानेन, विदेहेषु ययौ नृपः ॥ २५९ ॥ भावार्थ-त्यार बाद देवे विमान बनाव्यु, तेनी अंदर सत्त्वशाळी पुरुषोमां शिरोमणि नामाक राजा देव अने गुरुने नमस्कार करी बेठो, अने देवनी सहायथी. ते विमान वडे महाविदेह क्षेत्रमा ज्यां श्रीसीमंधर स्वामी बिराजेला हता त्यां गयो ॥२५९॥ तत्राऽष्टप्रातिहार्यश्री-सेव्यं सीमन्धरं जिनम् । नत्वाऽपृच्छच्चिरत्नो मे-ऽन्तरायः कोऽयमित्यसौ ॥ २६० ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____भावार्थ--त्या आठ महाप्रातिहार्य रूप लक्ष्मी वडे सेवाता श्रीसीमन्धर जिनेन्द्रने वंदन करी पूछ्यु के–'हे || प्रभो ! मने घणा लांबा काळथी शुं अंतराय कर्म लाग्युं छे ? ' ॥ २६० ॥ अथ च समुद्र-सिंहयोनांग-गोष्टिकस्य च सा कथा । यथा युगन्धराचार्यैः, प्रोक्ता स्वामी तथादिशत् ॥ २६१ ॥ भावार्थ-आ प्रमाणे नाभाक राजानो प्रश्न सांभळी प्रभु श्रीसीमंधर स्वामीए जेवी रीते युगंधराचार्ये समुद्रपाल सिंह अने नागगोष्ठिकनी कथा कही हती तेवी रीते संपूर्ण कही ॥ २६१ ॥ पुनः प्राहः प्रभु पं, न पूर्वकृतकर्मतः। . विमुच्येत क्वचित कोऽपि. त्वमेवाऽस्य निदर्शनम ॥२६२॥ भावार्थ-वळी प्रभुए राजाने कह्यु के-पूर्वभवमा उपार्जन करेला को भोगव्या सिवाय कोइ पण प्राणी कदापि छूटी शकतो नथी, ते संबंधमां तुंज पोते दृष्टांतरूप छे ॥ २६२ ॥ त्वया सिंहभवे यात्रा-ऽन्तरायोऽकारि बान्धवम् । धारयित्वा स विज्ञेयो, वृद्धः सोपानलोठकः ॥ २६३ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAA भावार्थ-शत्रुजय पर्वत पर ते बन्ने जणाए त्रण अठवाडिया सुधी भक्तिपूर्वक श्रीआदीश्वर प्रभुनी स्नात्र-|| पूजानो महोत्सव करी पोताना आत्याने भाग्यशाली मानवा काग्या ॥ २६६ ॥ अथ शाश्वतपूजार्थ, सर्वाङ्गाभरणानि तौ। ___कारयित्वा महापूजा-क्षणेऽरोपयतां क्रमात् ॥ २६७॥ भावार्थ-त्यार पछी शाश्वत पूजा माटे सर्व अंगना आभूषणों करावी ते महापूजा वखते आभूषणोने क्रम- ||" सर प्रभुना अंग उपर चडाव्या ॥ २६७ ।। माणिक्यरत्नखचितां, दत्त्वा हैमी महाध्वजाम् । अभारङ्गसङ्गीत-भक्तिं दर्शयतश्च ती ॥२६८ ॥ भावार्थ-त्यार पछी माणेक अने रत्नोथी जडेळी सुवर्णनी महाध्वजा चडावी अने अखंडित भावोल्लास पूर्वक संगीत गान करी प्रभुना उपर पोतानी अवर्णनीय भक्ति देखाडी आपी ॥ २६८ ॥ एवं निर्माय निर्मायौ, प्राज्यप्रौढप्रभावनाः । सर्वज्ञशासनौन्नत्यं, तो व्यस्तारयतां चिरम् ।। २६९ ।। A AA Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ प्रमाणे कोइ पण प्रकारनी माया रहित पवित्र हृदये ते राजा अने देवे अत्यंत मोटी प्रभावना करी लांबा वखत सुधी सर्वज्ञ प्रभुना शासननी उन्नति विस्तारी ॥ २६९ ॥ अथाऽनन्तगुणोत्साह-बद्धरोमाञ्चकञ्चुकः । नाशाकभूपतिधर्म-शालास्थानमशिश्रियत् ॥ २७० ॥ भावार्थ-त्यार बाद अनंतगणा उत्साहथी प्रफुल्लित रोमांचवाला नाभाक राजाए धर्मशालाना स्थाननो आश्रय लीधो ॥ २७॥ तत्र न्यक्कृतकल्पद्रु-डिण्डिमोद्घोषपूर्वकम् । स्वमर्थमर्थिसात्तन्व-नदारिद्रयं जगद् व्यधात् ॥ २७१ ॥ भावार्थ-त्यां रही दान आपवा माटे पटहोद्घोषणा करावी, अने जेना दानगुण पासे कल्पवृक्षो पण हलका पडी गया एवा ते राजाए पोतानुं धन याचक जनोने आपतां सर्व जगत् अदारिद्रय करी दीधुं ।। २७१ ॥ अथ पुण्यपवित्रात्मा, क्षालिताऽखिलकश्मलः। : गुरुभिः सह भूपालः, प्रतस्थे स्वपुरं प्रति ॥ २७२ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ भावार्थ-तें सिंहना भवर्मा तारा भाइ समुद्रपालने यात्रा करतां अटकावी अंतराय कर्यो हतो, अने तेथी | तें अंतराय कर्म उपार्जन कर्यु हतुं, ते अंतराय कर्मज तने पहेले पगयीयेयी गवडावनार वृद्ध पुरुष जाणवो ॥२६३॥ असौ नागस्य जीवोऽपि, चन्द्रादित्यभवे पुरा। क्षालिताऽखिलसत्कर्मा, सौधर्मेऽजनि निर्जरः ।। २६४ ॥ भावार्थ-वळी जे आ तारी साथै देव आवेलो छे ते नामश्रेष्ठीनो जीव छे, तेणे पहेला चंद्रादित्यना भवमा पुण्यकर्म बडे समग्र पाप प्रक्षालन करी अत्यारे सौधर्म देवलोकमां देवता थयो छे ॥ २६४ ॥ ॥९॥ इति सीमन्धरस्वामि-मुखात्ती चरितं निजम् । श्रुत्वा प्रीती जिनं नत्वा, शत्रनयमगच्छताम ॥२६॥ भावार्थ-आ प्रमाणे सीमंधर स्वामीना श्रीमुखथी ते देव अने नामाक राजा पोतपोतानुं चरित्र सांभळी घणा हर्षित थया, अने ते प्रभुने वंदन करी श्रीशचुंजय पर्वत उपर गया ॥ २६५ ॥ . तत्र श्रीआदिदेवस्य, स्नानपूजामहोत्सवम् । कृत्वाऽष्टाहत्रयं भक्त्या, तो स्वं धन्यममन्यताम् ॥ २६६ ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-हवे पुण्य वडे पवित्र आत्मावाळो ते नामाक राजा पोताना समग्र पापनी शुद्धि करी गुरु महाराज || साथे पोताना नगर तरफ चाल्यो ॥२७२ ।। । अनुपानद् गुरोर्वाम-भागेन पथि सञ्चरन् । दशेयन्नुच्चनीचां च, भुवं भक्ताग्रणीरभूत् ॥ २७३ ॥ भावार्थ-रस्तापां गुरुमहाराजने डावे पडखे उघाडे पगे चालतो अने उंचाण-नीचाणवाळी पृथ्वीने बताबतो ते नाभाक राजा गुरुभक्त शिरोमणि थयो ॥ २७३ ॥ चन्द्रादित्यमुरः सेना-मानं छत्रं वितानयन् । चामरांवालयन पार्श्व-व्ये सद्गुरुभूपयोः ॥ २७४ ॥ संवर्तकाऽनिलेनाग्रे, कण्टकाचपसारयन् । गन्धोदकस्य वर्षेण, मार्गस्थं शमयन् रजः ॥ २७५ ॥ सुगन्धिभिः पञ्चवर्ण-दिव्यपुष्पैर्भुवं स्तृणन् । संचारयन् पुरस्थं च, योजनोत्रमहाध्वजम् ॥ २७६ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एतयोरवमन्तारो, यास्यन्ति प्रलयं स्वयम् । एतत्पादाब्जनन्तारो, वर्डिष्यन्ते महाश्रिया ॥२७७ ॥ इत्यम्बरगिरा साकं, दुन्दुभिं दिवि ताडयन्। । गुरूणां विद्धे भक्तिं, सान्निध्यं च महीपतेः ॥ २७८ ॥ पञ्चभिः कुलकम् । भावार्थ-चन्द्रादित्य देव पण सेनाना परिमाण जेटलं छत्र विस्तारतो, सद्गुरुमहाराज अने राजाना। बन्ने पडखे चामरो वींजतो-॥ २७४ ॥ संवर्तक वायरा वडे रस्तामा आगळ आगळ कांटा विगेरेने दूर करतो, मु. गंधी पाणी वरसावी मार्गनी धूल शांत करतो ॥ २७५ ॥ गंधथी बहेकी रहेला पांच वर्णना दिव्य पुष्पोथी पृथ्वीने आच्छादित करतो, आगळ एक योजन प्रमाण उंची मोटी ध्वजा फरकावतो, ॥ २७६ ॥ “आ गुरुमहाराज अने राजानुं अपमान करनारा स्वयं नाश पामशे, अने एमना चरणकमलने नमस्कार करनार लोकोने महालक्ष्मीनी वृद्धि यो" ॥ २७७ ॥ एवी आकाशवाणी साथे गगनां दुंदुभिनो नाद करतो छतो गुरुमहाराजनी भक्ति करतो हतो, तेमज राजानुं सानिध्य करतो हतो ॥ २७८ ॥ इत्थं प्रतिपदं नैक-भूपैः प्राभृतपाणिभिः। प्रवर्धमानभव्यश्री-नृपः प्रापन्निजं पुरम् ।। २७९ ॥ . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आवी रीते मार्गमां चालतां पगले पगले अनेक राजाओ द्वाथमा भेटणां लइ नाभाक राजानुं | सन्मान करवा लाग्या, अने तेथी वृद्धि पामती मनोहर लक्ष्मीवाळो राजा पोताना नगरमा आवी पहोंच्यो ॥२७९॥ .. गुरवोऽपि ततो दत्त्वा, श्रीमन्नामाकभृपतेः। सम्यक्त्वमूलश्राडाणु-ब्रतानि व्यहरन भुचि ॥ २८० ॥ भावार्थ-त्यार बाद गुरुमहाराजे नाभाकराजाने सम्यक्त्वमूल श्रावकना अणु व्रत उचरावी शुद्ध श्रावक कर्यो, पछी गुरुमहासजे बीजे स्थळे विहार कर्यो । २८० ॥ अथ देवस्य सान्निध्याद्, वासुदेव इव स्वयम् । भूपालो भरताधेस्य, त्रीणि खण्डान्यसाधयत् ॥ २८१ ॥ भावार्थ-त्यार पछी चन्द्रादित्यदेवनी सहायथी नाभाकराजाए वासुदेवनी पेठे अर्ध भरतना त्रणे खंड | साध्या ॥ २८१॥ भूमिपतिसहस्रापा, षोडशानां च मूर्धनि ।' आज्ञा संस्थाप्य राज्यं स्व-धर्म च समपालयत् ॥ २८२ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावाथ-नाभाकराजाए सोळ हजार राजाओ उपर पोतानी आज्ञा प्रवर्तावीने सम्यक् प्रकारे पोताना राज्यनुं अने धर्मनुं पालन करवा लाग्यो ॥ २८२॥/ त्रिकालं देवमभ्यर्चन् , द्विसन्ध्यं सद्गुरून्नमन् | षडावश्यककृत्यं च, तन्वन् राज्यफलं ययौ ॥ २८३ ॥ भावार्थ--राजाए प्रण काळ प्रभुनी पूजा, अने सांज सवार सद्गुरु महाराजने वंदन तथा छ आवश्यक कृत्य करतां राज्यनुं शुभ फळ मेळव्युं ।। २८३॥ . प्रतिग्रामपुरं जैन-प्रासादास्तुणतोरणाः । व्यधाप्यन्त नरेन्द्रेण, धर्मशालाः सहस्रशः ॥ २८४ ॥ भावार्थ-ते राजाए दरेक गाम अने शहेरोमा उँचा तोरणवाळा जिनमंदिरो बंधाग्या, तेमज हजारो धर्मशाला बंधावी ॥ २८४ ॥ साहिलीकपरद्रोह-पैशून्यकलिमत्सराः। . निर्मूलं वारिताः सप्त-व्यसनानि विशेषतः ॥ २८५॥ JA Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |ना. " भावार्थ-वळी ते राजाए पोताना राज्यमा निंदा, परद्रोह, चाडी, कजीओ, इD विगेरेनुं निर्मूल निवाः ।। रण कर्यु, तथा सात व्यसनोनो तो विशेष प्रकारे निषेध कर्यो ॥ २८५ ॥ मिथ्यात्वं पापमन्याय, विधत्ते मनसाऽपि यः तस्य देवः स्वयं शिक्षां, दत्ते तत्क्षणमेव सः ॥ २८६ ॥ ____भावार्थ-तेना राज्यमां कोई पण माणस मिथ्यात्व माप अने अनीति मनथी पण करतो तो तेने चन्द्रा- दित्य देव तेज क्षणे शिक्षा करतो ॥ २८६ ॥ .. तदेशवास्तव्यजना-स्ततः पुण्यैकबुद्धयः। राजवाऽनुवर्तन्ते, यथा राजा तथा प्रजाः ॥ २८७ ॥ भावार्थ-पुण्यमां लीन करेली बुद्धिवाळा ते देशना लोको राजाने मार्गे धर्म अने नीतिने अनुसरवा लाग्या, कारण के जेवो राजा होय तेवी तेनी प्रजा होय छे । २८७॥ । एवं यथा यथा पृथ्व्यां, पुण्यवृद्धिस्तथा तथा। काले सृष्टिोन्यपुष्टि-बहुपुष्पफला द्रुमाः ॥ २८८ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुक्षीरपदा गावी, बहुरत्नाश्च खानयः ।। व्यवसाया महालाभा, दूरदेशाः सुसञ्चराः ॥ २८९॥ निरामया निरातका, महासौख्याश्चिरायुषः। पुत्रपौत्रादिसन्तान-वृद्धिभाजोऽभवन् जनाः ॥ २९० ॥ त्रिनिर्विशेषकम् । भावार्थ-आवी रीते पृथ्वीमा जेम जेम पुण्यनी वृद्धि यवा लागी तेम तेम सारी रीते समयसर दृष्टि थवा लागी, घj धान्य नीपजवा लाग्यु, वृक्षो घणा पुष्पो अने फळ आपनारा यया ॥ २८८ ॥ गायो अधिक दूध आपवा लागी, खाणो घणा रत्नोवाळी थइ, व्यापारमा अतिशय लाभ थवा लाग्यो, घणा दूरना देशो पण मुखरूप मुसाफरी यइ शके तॆवा यया ॥२८९ ॥ तेमज लोको निरोगी, निर्भय, अत्यंत मुखी, लांबा आयुष्यवाळा अने पुत्र-पौत्रादि संततिनी वृद्धिवाळा यया ॥ २९० ॥ एवं तद्राज्यलोकानां, धर्मशर्मनिरीक्षणात् । हियेव स्वर्गिणोव-नदृश्या धर्मवर्जिताः ॥ २९१ ॥ 'भावार्थ-आवी रीते ते राज्यना लोको धर्मना प्रभावी एटला मुखी हता के जे मुखने जोइ धर्मवर्जित || Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || देवो पण पोताने मुखरहित मानवा लाग्या, अने तेथी जाणे लज्जा आववाथी पोते अदृश्य थइ गया होयनी ! || ॥२९ ॥ श्रीनामाकनराधीशः, प्रपाल्येति चिरं स्थिरम् । राज्यं प्राज्यं प्रान्तकाले, संसाध्याऽनशनं सुधीः ।। २९२ ।। अगाद्वादशकल्पेऽथ, नृजन्माऽवाप्य सेत्स्यति । देवोऽपि प्राप्य मानुष्यं, शाश्वतं सौख्यमापयति ॥ २९३ ॥ युग्मम् । भावार्थ-आ प्रमाणे पुण्यशाली नामाकराजाए पोताना विस्तृत राज्यने चिरकाल सुधी स्थिर रीते पालन कर्य, अंतकाले ते अतिमान राजा अणसण ग्रहण करी बारमा अच्युत देवलोकमां देव थयो, त्यांथी च्या जन्म भाप्त करी सिद्ध यशे चन्द्रादित्य देव पंण देवलोकमांयी च्यवी मनुष्यपणुं मात करी मोक्षमां शाश्वतुं मुख पामशे ॥ २९२-२९३ ॥ श्रीनामाकनरेन्द्रस्य, निशम्येदं कथानकम् । देवद्रव्याच दूरेण, नित्यं स्थेयं मनीषिभिः ॥ २९४ । . च्यवी मनुष्य Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आ प्रमाणे श्रीनाभाकराजानी कथा सांभळीने बुद्धिमान् पुरुषोए देवद्रव्यथी तद्दन दूर रहे.उचित | छ // 294 // श्रीमदचलगच्छेश-श्रीमेरंतुङ्गसूरिभिः। युग युगभूसङ्ख्ये, वर्षे निर्मिता कथा // 295 // भावार्थ-श्रीमान् अंचलगच्छाधिपति श्री मेरुतुंगरिए चौदसो चोसठनी सालमां आ कथा रची // 295 // - श्रीनाभाकराजचरित्रं गुर्जरभाषानुवादसहितं / Heaker! समाप्तम्। rai