Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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प्रान्ते मृत्वा दानपुण्याद, राजन् ! राजा भवानभूत् ।
शुइंजीवदयापुण्याद् , रूपनिर्जितमन्मथः ॥ १९५ ।। भावार्थ-हे राजन् ! आयुष्य पूर्ण यता भानु मरण पामी, मुनिराजने दान आपवाना पुण्ययी नाभाक. नामनो तु गजा थयो छे, अने शुद्ध जीवदया पाळी उपार्जन करेला पुण्यथी कामदेव करतां पण तने अधिक रूप प्राप्त थयु छे ॥ १९५ ॥ चन्द्रादित्योऽपि सम्पूर्ण-निर्मापितजिनालयः।
॥७ प्रायश्चित्तेन शुद्धात्मा, सौधर्मे त्रिदशोऽभवत् ॥ १९६ ॥ भावार्थ-पूर्वभवमां देवव्यनो विनाश करवायी कोढियो ययेको चित्रपुरी नगरीनो राजा चन्द्रादित्य के जे मुनिराजना उपदेशथी परमेष्ठी महामंत्रनुं ध्यान करी छ मासमा कांचन जेवी कातिवाळो थयो हतो, तेणे । चित्रकूट पर्वतना शिखर उपर आरंभेल जिनालय संपूर्ण कराव्यु. आवी रीते प्रायश्चित्त करी शुदात्मा थयेलो ते मरण पामी सौधर्म देवलोकमां देव ययो ॥ १९६ ॥
त्वं तत्रैव भवे मूर्त-पुण्यवजिनमन्दिरम् । पातयित्वा पुरस्याऽस्य, परितो दुर्गमातनोः ॥ १९७ ॥

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