Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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ना.
१३६॥
भावार्थ - एम विचार करी श्रीशभुंजय तीर्थथी साधे आवेला में तमारा शत्रुओने दृढ बंधनोथी यांची लीपा इता. परंतु हुं अल्पशक्तिवाळो लुं, तेथी मारा स्थान सिवाय अन्य स्थाने रहेवा समर्थ नथी ॥ ९३ ॥ अतो याताऽस्मि तत्रैव, परं यात्राद्वयस्य मे ।
प्रत्यन्दं सुकृतं देयं प्रपेदे सोऽपि तद्वचः ॥ ९४ ॥
भावार्थ-माटे हुं मारा स्थानके जाउं कुं. पण छेवटमां मारे तमोने एटलुं जणाववानुं के, तमारे दर वर्षे मारा निमित्ते ने यात्रानुं पुण्य देकुं आ प्रमाणे ज्यारे व्यंतर देवे पोतानो समस्त व्यतिकर राजाने स्पष्ट कही बतान्यो, भने छेटनी के याजाना पुण्यनी मागणी करी त्यारे राजाए पण तेनुं वचन मान्य कर्यु ।। ९४ ।। यस्तु दीयते चेत्तत् सहस्रगुणमाम्यते ।
यतः
तहन्ते सुकृते पुण्यं पापे पापं च तद्गुणम् ॥ ९५ ॥
भावार्थ - जे वस्तु दान तरीके आपवामां आवे छे, तेथी हजारगणी प्राप्त थाय छे. बळी जे सुकृतने विषे 'अपाय छे ते पुण्य आपे छे, अने जे पाप आरंभकारी कार्यमा अपाय छे ते तेटलाज गणुं पाप आपे छे. ॥ ९५ ॥ दीयमानं धनं किञ्च, धनिकस्याऽपचीयते । सुकृतं दीयमानं तु, धनिकस्योपचीयते ॥ ९६ ॥

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