Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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यात्रा फलं पूर्व, प्रत्यब्दं यत् समुद्रतः । तेन प्राप्तं ततः पुण्यात्, तस्यैषा वासनाऽजनि ॥ १४९ ॥
भावार्थ - तेने आखेडुतना भवमां सुनिने अन्न वहोरावना रूप शुभ अध्यवसाय उत्पन्न थयो तेनुं कारण एज के, तेजे पूर्वभवर्मा समुद्रपाल राजा पासेथी दरवर्षे वे यात्रानुं फळ मेळच्यु हतुं, अने ते पुण्यना प्रभावथीज तेने आवा प्रकारनी शुभ वासना उत्पन्न थइ ॥ १४९ ॥
स्यादेतद्भक्तॄणामन्तरायस्ततो
।
कल्पतेऽन्नमिदं साधु-नेत्युक्ते च सकते जगौ ॥ १५० ॥
भावार्थ — कौशिके भात ग्रहण करवानी विनति करी स्थारे मुनिराजे कछु के-' आ भोजन तु खेतरवां भोजन करनाराओ माटे लइ जाय छे, ते अन्न जो हुं ग्रहण करूं तो तेओने अंतराय थाय, तेथी आ भात मारे वहोर कल्पे नहीं.' आ प्रमाणे मुनिराजे ज्यारे भात बहोरवानी अनिच्छा दर्शावी स्थारे तेणे कहुं के ।। १५० ॥
कृत्बोपवासमन्यय, दास्ये भक्तं निजं ध्रुवम् ।
सयः प्रसच गृह्णीते- त्याच हादग्रही मुनिः ॥ १५१ ॥
ना.
च.
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