Book Title: Nabhakraj Charitram
Author(s): Merutungsuri,
Publisher: Dosabhai and Karamchand Lalchand
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मिथः प्रवृत्ते युद्धेऽथ, भग्नां वीक्ष्य निजां चमूम् ।
श्रीसमुद्रन्पो यावत्, किंकर्तव्यजडोऽजनि ।। ७८ ॥ भावार्थ-परस्पर बने सैन्यनुं युद्ध प्रवत्यु, पण छेवटपां दुश्मनोना पराक्रमथी पोतानी सेनाने वीखराइ गयेली जोइ समुद्रपाल राजा 'हने हुं करवू ?' ए प्रपाणे जेटलामां विचारवमळमां पंचवायो ॥ ७८ ॥
तावन्निविडबन्धेन, निवान् योजिताञ्जलीन् । ॥३१॥
पादाने लुठतो वीक्ष्य, रक्ष रक्षेति जल्पतः ॥ ७९ ॥ 'भावार्थ-तेटलामां मजबूत बंधनोथी बंधाएला अने के हाथ जोडी पगमा माळोटता शत्रुराजाओने पोतानी सन्मुख रक्षण करो रक्षण करो' ए प्रमाणे बोलता.जोइने ॥ ७९ ॥
विवेषिभूपतीन् सर्वान् , प्रोन्मुच्य निजपूरुषैः ।
अहो ! किमिति सार्यो- पृच्छत्तानेव भूपतीन् ॥ ८ ॥ 'भावार्थ-पोताना उपर देष करनार अने युद्ध करनार ते सर्व शत्रुराजाओने पोताना माणसो द्वारा छोडावीने ॥ 'अहो ! आशु आश्रर्य कन्युं " ए प्रमाणे ते राजाओगे पूछयु ।। ८०॥

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